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________________ तप २६१ रहती थी। यह प्रतिकूल काल आया है, घर बैठे ही प्रतिकूलता है, बाहर ढूँढने नहीं जाना पड़ता। यह काल ही ऐसा है कि कहीं भी एडजस्टमेन्ट हो ही नहीं पाता। घर में, बाहर, पड़ोसी, सब तरफ से ही डिस्एडजस्टमेन्ट आ पड़ता है, उसे तू सहन कर और एडजस्ट हो जा । प्राप्त तप अर्थात् जो आ पड़ा है वह तप, उसे शांतिपूर्वक आराम से भोग ले, सामनेवाले को ज़रा सा भी दुःख नहीं हो, सामनेवाले को अपने निमित्त से दुःख तो नहीं हो, लेकिन अपना मन सामनेवाले के लिए थोड़ा सा भी नहीं बिगड़े, वह प्राप्त तप है । अन्य तप करने को भगवान ने अभी मना किया है। तो भी देखो न लोग तरह-तरह के तप लेकर बैठे हैं ! अरे समझ न! शिष्य के साथ पूरे दिन क्रोध करता है और दूसरे दिन उपवास करता है, अब इसका अर्थ क्या है? मीनिंगलेस हैं ये सारी चीजें! यह मीनिंगलेस नहीं लगता आपको ? कहेगा कि, 'मुझे दो उपवास करने हैं । ' अरे भाई, अभी तो ऐसा है न कि, किसी दिन राशन का ठिकाना नहीं पड़े, तब थोड़े चावल से चला लेना पड़ता है । उस दिन महाराज 'इतने ही चावल मिले तब उतना ही भोजन, ' वहाँ ऐसा करो न ! प्लस, माइनस कर दो न ! एक दिन बिल्कुल ही नहीं खाओ, उसके बजाय तो रोज़ थोड़ा-थोड़ा प्लस, माइनस करके आप एडजस्ट हो जाओ न ! किसी दिन खाने का ठिकाना दो बजे तक नहीं पड़े तब वहाँ शांत भाव से सहन कर ले न ! अथवा भोजन का ठिकाना ही नहीं पड़े, वहाँ पर तू शांत रह। यह पेट तो, अंदर थोड़ा-बहुत गया तो फिर शोर नहीं मचाएगा। रात को इतनी खिचड़ी और सब्ज़ी दे दी हो तो फिर शोर मचाता है ? नहीं मचाता । फिर आपको जिस तरह के ध्यान में रहना हो वैसे रहने देता है । पेट को तो हर्ज नहीं है, यह भूल खुद की है। मन भी वैसा नहीं है, खुद अनाड़ी है। खुद अनाड़ी है, इसलिए खुद तो दुःख भोगता है, लेकिन दूसरों को भी दु:ख भुगतवाता है। अनाड़ीपन! लोग आमने-सामने कहते हैं न कि यह अनाड़ी है? अरे, मुंबई में किसे अनाड़ी नहीं कहें, वह ढूँढ निकालना मुश्किल है, यानी कि आमनेसामने अनाड़ी कहते रहते हैं । अरे, नहीं कहना चाहिए। वह तो भगवान
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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