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________________ आप्तवाणी -२ एक मन (४० सेर) का था, वह फिर ३८ सेर का हो जाता है, फिर ३६ सेर का हो जाता है, फिर क्रमशः वह खत्म हो जाता है। २५० संयोग कम्प्लीट वियोगी स्वभाव के हैं । वह तो एक संयोग आता है और ग्यारह बजकर पाँच मिनट हो जाएँ, तब जाने लगता है। उसे कहें कि, 'ले, खड़ा रह, भोजन करके जा ।' फिर भी वह खड़ा नहीं रहता। जब उसका काल पके तब जाने ही लगता है । लेकिन यह तो कैसा है कि दो मिनट के बाद वापस वियोग होनेवाला हो, तब वह वापस राह देखता है कि ‘अभी तक नहीं गया, अभी तक नहीं गया, कब जाएगा?' तो वे दो मिनट उसे दस मिनट जैसे लगते हैं । यह इंतजार करने से तो काल लंबा लगता है। बाकी संयोग तो वियोगी स्वभाव के ही हैं । हर एक संयोग में हमें खुद को एकाकार होने जैसा नहीं है, उसके तो हम सिर्फ ज्ञाता-दृष्टा मात्र हैं। संयोगों के साथ हमें झगड़ा करने की भी ज़रूरत नहीं है या फिर उनके साथ बैठे रहने की भी ज़रूरत नहीं है । कोई भी संयोग आए तो कह देना चाहिए कि, 'गो टु दादा ।' सभी संयोग तो निरंतर बदलते ही रहनेवाले हैं और हम उनसे भिन्न हैं । विचार आए, वह संयोग और उनमें एकाकार होकर हिल जाएँ, वह भ्रांति है, उन्हें तो मात्र देखना और जानना चाहिए । संसार में रिलेटिव में भय सिर पर आए, तब वह पूरा आत्मा में घुस जाता है और आत्मा का अनुभव हो जाता है ! यह छोटा बच्चा हो, वह ऐसे तो खुद का खिलौना छोड़ता नहीं है, हटाने जाएँ तो ज़िद करता है और इतने में बिल्ली आ जाए तो डरकर सबकुछ छोड़कर भाग जाता है! जिसे स्वरूपज्ञान मिला हो उसे तो यदि कभी बड़ा भय आए न, तब तो उसे संपूर्ण आत्मानुभव, केवलज्ञान ही हो जाए। हमें भी संयोग मिलते हैं, फिर भी हम लोगों को कौन से संयोग पसंद करने चाहिए? कि जो रियल में हैल्प करें वे, जो रियल का मार्गदर्शन दें उन संयोगों को पसंद करना चाहिए । जो रिलेटिव का मार्गदर्शन दें, उन संयोगों को पसंद नहीं करना चाहिए। जगत् के लोग संयोगों के दो भाग कर देते हैं एक फायदेवाले और दूसरे नुकसानवाले। लेकिन हम तो जानते हैं कि फायदा -
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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