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________________ संयोग विज्ञान जगत् में 'शुद्धात्मा' और 'संयोग,' दो ही चीजें हैं। बाहर जो मिलते हैं वे संयोग हैं, हवा ठंडी लगती है। विचार आएँ वे संयोग, लेकिन बुद्धि से 'यह खराब है और यह अच्छा है' ऐसा दिखता है, और इसलिए रागद्वेष करता रहता है। ज्ञान क्या कहता है कि, 'दोनों संयोग एक जैसे ही हैं। संयोगों से तू खुद मुक्त ही है, तो फिर दख़ल क्यों करता है? ये संयोग, तुझे खुद को क्या करनेवाले हैं?' ये तो संयोग हैं, वे कुछ भी नहीं करनेवाले लेकिन बुद्धि दख़ल करवाती है। बुद्धि तो संसार का काम करके देती है। बुद्धि मोक्ष में नहीं जाने देती, जबकि ज्ञान मोक्ष में ले जाता है। दुनिया में जिस बुद्धि का उपयोग होता है, वह सम्यक् नहीं है। यह तो विपरीत बुद्धि का चलन है। खुद के हिताहित का भान नहीं है, इसलिए सभी ओर जैसातैसा चल रहा है न? और स्वरूप ज्ञान प्राप्त होने के बाद बुद्धि सम्यक् हो जाती है, हिताहित का भान रहता है। सम्यक् बुद्धि क्या कहती है कि यह संयोग आया है, अपने तो चुप रहो, नहीं तो मार पड़ेगी। और विपरीत बुद्धि तो क्या करती है कि ऐसे समय पर चुप तो नहीं रहती लेकिन ऊपर से मार पड़वाती है। विपरीत बुद्धि की काई जम गई है। तो उसे ज़रा हटाना पड़ेगा, तब ज़रा उजाला हो! मुझमें से तो विपरीत बुद्धि की सारी काई निकल चुकी है! इस बुद्धि ने तो तरह-तरह के संयोगों के भेद डाल दिए हैं। कोई कहे कि यह अच्छा, जबकि कोई कहेगा कि, 'यह खराब है!' एक को जलेबी का संयोग पसंद है तो वह उसे अच्छा कहता है और दूसरे को वह नापसंद हो तो वह उसे खराब कहता है। उसमें वापस अभिप्राय देता है कि, यह अच्छा और यह खराब। उससे फिर राग-द्वेष खड़े हो जाते हैं। उसी से तो संसार खड़ा है। एक छोटे बच्चे को हमने एक हीरा और
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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