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________________ १४८ आप्तवाणी-२ वहाँ पर नहीं दिखें, वह खुद ‘परमात्मा स्वरूप' हो गया! 'वीर भगवान' हो गया! 'हमारा' ज्ञान प्राप्त करने के बाद खुद निष्पक्षपाती हो गया, क्योंकि 'मैं चंदूभाई नहीं, मैं शुद्धात्मा हूँ' यह समझ में आ जाए, उसके बाद निष्पक्षपाती हुआ जाता है। किसी का ज़रा सा भी दोष दिखे नहीं और खुद के सभी दोष दिखें, तभी खुद का कार्य पूरा हुआ कहलाता है। पहले तो 'मैं ही हूँ' ऐसा रहता था, इसलिए निष्पक्षपाती नहीं हुए थे। अब निष्पक्षपाती हो गए इसलिए खुद के सभी दोष दिखने शुरू हुए, और उपयोग अंदर की तरफ ही रहता है, इसलिए दूसरों के दोष नहीं दिखते! जब खुद के दोष दिखने लगें, तब हमारा दिया हुआ 'ज्ञान' परिणामित होना शुरू हो जाता है। खुद के दोष दिखाई देने लगे इसलिए दूसरों के दोष नहीं दिखते हैं। दूसरों के दोष दिखें, वह तो बहुत बड़ा गुनाह कहलाता है। इस निर्दोष जगत् में कोई दोषित है ही नहीं, वहाँ किसे दोष दें? दोष हैं, तब तक दोष, वह अहंकार का भाग है, और जब तक वह भाग धुलेगा नहीं, तब तक सारे दोष निकलेंगे नहीं, और तब तक अहंकार निर्मूल नहीं होगा। अहंकार के निर्मूल होने तक दोष धोने हैं। दोष प्रतिक्रमण से धुलते हैं। किसी के साथ टकराव में आ जाए, तब फिर से दोष दिखने लगते हैं और टकराव नहीं हो तो दोष ढंका हुआ रहता है। पाँच सौ-पाँच सौ दोष रोज़ के दिखने लगें, तब समझना कि अब पूर्णाहति नज़दीक आ रही है। ज्ञान के बाद हमें रोज़ के हज़ारों दोष दिखने लगे थे। जैसे-जैसे दोष दिखते जाते हैं, वैसे-वैसे दोष घटते जाते हैं और जैसे-जैसे दोष घटते हैं, वैसे जागृति बढ़ती जाती है। अब हमारे केवल सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष बचे हैं, जिन्हें हम ‘देखते' हैं और 'जानते' हैं। वे दोष किसी को परेशान करें ऐसे नहीं होते, लेकिन काल के कारण वे अटके हुए हैं और उसी वजह से तीन सौ साठ डिग्री का 'केवलज्ञान' रुका हुआ है। तीन सौ छप्पन डिग्री पर आकर रुक गया है! लेकिन हम आपको पूरा तीन सौ साठ डिग्री का केवलज्ञान' एक घंटे में ही दे देते हैं, लेकिन आपको वह पचेगा नहीं। अरे, हमें ही नहीं पचा न! काल के कारण चार डिग्री कम रह गया! भीतर पूरा-पूरा तीन सौ साठ डिग्री रियल है और रिलेटिव में तीन सौ छप्पन डिग्री है। इस काल में
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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