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________________ निज दोष १४७ साधु महाराजों की एक ही भूल, कि वे जो उदयकर्म का गर्व लेते हैं, यदि वह भूल हो रही हो और एक उतनी ही भूल यदि मिटा दें तो काम ही हो जाए। महाराज को उदयकर्म का गर्व है या नहीं, इतना ही देखना होता है, बाहर का और कुछ भी नहीं देखना होता। कषाय रहेंगे तो चलेगा, लेकिन उदयकर्म का गर्व नहीं होना चाहिए। बस, इतना ही देखना होता है। जो खुद की एक भी भूल मिटाए, उसे भगवान कहते हैं। खुद की भूल बतानेवाले बहुत होते हैं, लेकिन कोई मिटा नहीं सकता। भूल दिखाना भी आना चाहिए। यदि भूल दिखाना नहीं आए तो अपनी भूल है, ऐसा क़बूल कर लेना चाहिए। यह किसी की भूल दिखाना, वह तो भारी काम है और जो उस भूल को मिटा दें, वे तो भगवान ही कहलाते हैं। वह तो 'ज्ञानीपुरुष' का ही काम। हमें इस जगत् में कोई भी दोषित दिखता ही नहीं। जेबकतरा हो या चरित्रहीन हो, उन्हें भी हम निर्दोष ही देखते हैं ! हम 'सत् वस्तु' को ही देखते हैं। यह तात्विक दृष्टि है। हम पैकिंग को नहीं देखते। वेराइटीज़ ऑफ पैकिंग्स हैं। उनमें हम तत्वदृष्टि से देखते हैं। 'हमने' संपूर्ण निर्दोष दृष्टि की है और सारे जगत् को निर्दोष देखा। इसीलिए 'ज्ञानीपुरुष' आपकी भूल' को मिटा सकते हैं। औरों के बस की बात नहीं है। भगवान ने संसारी दोष को दोष नहीं माना है। 'तेरे स्वरूप का अज्ञान'वही सबसे बड़ा दोष है। यह तो 'मैं चंदूलाल हूँ,' तब तक अन्य दोष भी खड़े हैं और एक बार 'खुद के स्वरूप' का भान हो जाए, तब फिर अन्य दोष जाने लगते हैं! निष्पक्षपाती दृष्टि 'स्वरूप के ज्ञान' के बिना तो भूल दिखती ही नहीं। क्योंकि 'मैं ही चंदूभाई हूँ और मुझमें तो कोई दोष नहीं है, मैं तो सयाना-समझदार हूँ,' ऐसा रहता है। और 'स्वरूपज्ञान' की प्राप्ति के बाद आप निष्पक्षपाती बन गए, मन-वचन-काया पर आपको पक्षपात नहीं रहा। इसलिए खुद की भूलें, आपको खुद को दिखती हैं। जिसे खुद की भूलें पता चलेंगी, जिसे प्रतिक्षण अपनी भूलें दिखेंगी, जहाँ-जहाँ पर होती हैं, वहाँ दिखेंगी, नहीं हैं
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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