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________________ धर्मध्यान १११ दादाश्री : किसी के सुख को किंचित् मात्र भी छीन लेने का ध्यान करना, वह रौद्रध्यान है। फिर भले ही उसने वास्तव में छीन नहीं लिया हो, लेकिन वह ध्यान तो रौद्रध्यान ही माना जाएगा और उसका फल नर्कगति है। आर्तध्यान मतलब जो भी कोई चिंता-परेशानी आ पड़े, वह खुद अकेला खुद के भीतर ही सहन करता रहे और कभी भी मुँह से बोले नहीं, क्रोध नहीं करे, तो वह आर्तध्यान में आता है। आज तो सिर्फ आर्तध्यान का मिलना मुश्किल है। जहाँ-तहाँ रौद्रध्यान ही है। धर्मस्थानों में भी इस काल में आर्तध्यान और रौद्रध्यान घुस गए हैं। इन साधुओं को निरंतर आर्तध्यान और रौद्रध्यान होते रहते हैं। शिष्यों पर चिढ़ते हैं, वह रौद्रध्यान है और भीतर घुलते रहते हैं, वह आर्तध्यान है। फलाँ महाराज के पच्चीस शिष्य हैं और मेरे तो इतने ही हैं, वह भयंकर आर्तध्यान है। और फिर वह शिष्य बढ़ाने में पड़ जाता है और भयंकर रौद्रध्यान करता है। महावीर भगवान के सिंहासन पर यह कैसे शोभा दे? ये तो रेसकोर्स में पड़े हुए हैं ! शिष्य बढ़ाने में पड़े हैं! अरे, घर पर एक बीवी और दो बच्चे, ऐसे तीन घंट थे, वे छोड़कर यहाँ एक सौ आठ घंट गले में लटकाए? इसे वीतराग मार्ग कैसे कहेंगे? प्रश्नकर्ता : इन आर्तध्यान और रौद्रध्यान को बदलें किस तरह? दादाश्री : आर्तध्यान और रौद्रध्यान होते हैं, वह इस काल के कर्मों की विचित्रता है। लेकिन यह जो अतिक्रमण हुआ उसके पीछे नक़द प्रतिक्रमण रख। कभी शायद अतिक्रमण हो जाए तो आपको प्रतिक्रमण करना पड़ेगा। रौद्रध्यान में पश्चाताप हो तो वह आर्तध्यान में जाता है और यदि रौद्रध्यान में यथार्थ प्रतिक्रमण करे तो धर्मध्यान हो जाता है। आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान साथ में ही होते हैं। भले ही भगवान की मूर्ति हो, लेकिन उसकी साक्षी में आलोचना करें और फिर से वैसा ध्यान नहीं हो, ऐसा दृढ़ निश्चय करना पड़ता है। प्रश्नकर्ता : कोई अपना अपमान करे तो उसे मन में किस तरह लेना चाहिए? दादाश्री : आत्मज्ञान हो तो अपमान होने से परेशानी नहीं होती।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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