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________________ प्रकृति एक आत्मा में अनंत शक्ति है! अनंत आत्माएँ हैं और अनंत प्रकृतियाँ हैं! हर एक के अंदर दो चीजें हैं, वस्तु 'पुरुष' है और अवस्तु 'प्रकृति' है। प्रकृति में रहता है इसीलिए 'वह' अबला है और यदि खुद 'पुरुष' बन जाए तो 'खुद' ही 'परमात्मा' है। पूर्ण 'पुरुष' को नहीं पहचानता, इसीलिए क्रोध-मान-माया-लोभ, वे सभी निर्बलताएँ घेर लेती हैं! हम सभी आत्मस्वरूप से एक ही स्वभाव के हैं, लेकिन प्रकृति से अलग-अलग हैं। खारी, तीखी, खट्टी, फीकी प्रकृति, वे सारे प्राकृतिक दोष हैं। यह प्रकृति त्याग करवाती है, तब त्याग होता है और यह प्रकृति जब ग्रहण करवाती है, तब ग्रहण होता है। यह तो प्रकृति का नचाया नाचता है, लेकिन तब कहता है कि, 'मैं नाचा'। इसी का नाम भ्रांति है न? यह आश्चर्य है न? उदय कर्म के आधार पर हुआ तो ऐसा कहता है कि 'मैंने किया, यह मैंने किया।' इसी का नाम भ्रांति। तब तक लटू कहलाता है, जब तक 'खुद' पुरुष नहीं बना है। 'खुद' का भान नहीं हुआ, तब तक 'मैंने किया!' ऐसा कैसे कह सकता है? करनेवाला कौन है? तू कौन है? यह तो जानता नहीं। फिर कैसे कहा जा सकता है कि 'मैंने किया'? यह तो जब प्रकृति रुलाती है तब कहता है, 'मैं रो रहा हूँ।' प्रकृति हँसाती है, तब कहता है 'मैं हँस रहा हूँ'। प्रकृति गुस्सा करवाती है तब गुस्सा करता है। यह तो प्रकृति जबरन करवाती है, तब 'मैं कर रहा हूँ' ऐसा कैसे कहा जा सकता है? फिर भी लोग ऐसा ही कहते हैं, वह आश्चर्य है न? प्राकृत अवस्था टेम्परेरी है। इन पंचेन्द्रियों से जो दिखती हैं, वे अवस्थाएँ प्राकृत हैं। इस जगत् में जो तत्व हैं, वे सभी तत्व अपने-अपने
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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