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________________ ६४ आप्तवाणी-२ होते हैं, और तब उन्हें खुद को ही कहना पड़ता है। यह तो गारन्टी के साथ कहता हूँ कि आपका कोई ऊपरी नहीं है और यह ऊपर तेरा कोई बाप भी नहीं है। फिर रहेगा कोई भय या डर? जिसकी आकुलता-व्याकुलता मिटी, उसे अंतरंग पच्चक्खाण ही है। वह तो 'क्रमिक मार्ग' के ज्ञानी को आकुलता-व्याकुलता रहती है। क्रमिक मार्ग' ही आकुलता-व्याकुलता का कारखाना है! यह तो 'अक्रम मार्ग' है इसलिए जब यहाँ पर कहीं भी इसका उपयोग करेगा, तब वहाँ पर तुरंत ही नक़द फल देगा! अब तो नये अनुभव होंगे! जिस हिल (पहाड़ी) पर चढ़े हो, उसका एक कोना भी अभी तो पूरी तरह से नहीं देखा है। लेकिन अब हिल पर चारों तरफ देखो, घूमो । ग़ज़ब का है ! जितना लाभ उठाना हो उतना उठा लेना। अपनी योग्यता और अपनी समझ से लाभ उठाते हैं। उससे सिर पर नहीं उठाया जाए तो हम उसे सिर पर उठवा देते हैं। यह तो और ही तरह का हो गया है, इसलिए काम निकाल लेना है। 'सकळ ब्रह्मांड झंखे ते ज्ञान वर्षा ने असह्य उनाळे।' - नवनीत पूरा ब्रह्मांड जिस 'ज्ञान' की बरसात की इच्छा करता है उस 'ज्ञान' की बरसात हुई तो हई, लेकिन वह भयंकर ग्रीष्म काल में हई! भयंकर दुषमकाल में 'ज्ञान वर्षा' हुई। जहाँ मनुष्यमात्र, साधु, आचार्य, बाबा सब तरफड़ाते हैं, ऐसे काल में! चौमासे में बरसात हो, तो वह तो नियमानुसार कहलाता है। लेकिन यह तो दुषमकाल की गर्मी में जो नहीं होना था, वह हो गया है। नहीं होनेवाली बरसात हो गई है। तो वहाँ काम निकाल लेना वीतरागों के दो प्रकार के ज्ञान हैं : एक 'क्रमिक' और दूसरा 'अक्रमिक,' कि जो आज यहाँ 'हमारे' पास प्रकट हुआ है!
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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