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________________ (34) ऋग्वेद में अर्हत् अर्हन् तथा अर्हन्त इन तीन पर्यायों के साथ इस पद का प्रयोग किया गया है। पूजनीय, प्रशंस्य तथा योग्य अर्थक यह अर्हद् पद यहाँ असाधारण अर्थघटना से संयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि ऋग्वेद में भी जो असाधारण व्यक्तित्व से युक्त एवं सर्वाधिक पूजनीय, प्रशंसनीय एवं योग्य हो उसे ही अर्हत् पद से युक्त किया गया है। ऋग्वेद की भांति अथर्ववेद में भी अग्नि देवता को अर्हत् कहा गया है। भाष्य में सायणाचार्य ने अतिशयेन हार्द खोलते हुए उल्लेख किया है-अर्हते पूज्याय अर्ह पूजायाम्। अर्हः प्रशंसायाम्। (पा. 3.2.133) इति लटः शत्रादेशः। इस प्रकार वेदों के अध्ययन से विदित होता है कि आज जो सर्वाधिक प्रचलित एवं रूढ शब्द जैन धर्म में अर्हत् है, उसकी उपलब्धि मात्र जैनागमों एवं बौद्ध त्रिपिटकों में ही नहीं वेदों में भी होती है। आश्चर्य तो इस बात का है कि अर्हत् की अवधारणा सर्वत्र जो अतिशय, सर्वाधिक, पूजनीय है, उनको ही इस अर्हत् पद से समलंकृत किया गया है। वैसे देखा जाये तो जगत् में पूजायोग्य अनेक व्यक्ति होते हैं, यथा :- माता, पिता, गुरु, आचार्य बुजुर्ग आदि। ये सभी आदर-पूजा के योग्य होते हैं, किन्तु इनको अर्हत् नहीं कहा जाता। यहाँ तक कि संत-महंत आदि अनेक आध्यात्मिक कक्षा में प्रविष्ठ महापुरुषों को भी अर्हत नहीं कहा जाता। मात्र अर्हत् उस सर्वोच्च सत्ता को कहा गया है, जिसके आगे अन्य कोई पूजनीय स्थान नहीं है। जैन और बौद्ध दोनों धर्मों में तो इस सर्वोच्च सत्ता को मान्य करके अर्हत्-तीर्थङ्कर और बुद्ध को कहा ही जाता है, किन्तु यहाँ वेदों में भी यही स्वरूप उपलब्ध हुआ है। महर्षि, संत आदि को नहीं, वरन् अग्नि, इन्द्र, रूद्र आदि सर्वोच्च स्तर पर अधिष्ठित देवाताओं को अर्हत् विशेषण से विभूषित किया है। उपलब्ध आगम एवं त्रिपिटकों से प्राचीन ऋग्वेद मान्य किया गया है, अतः इतना तो कहा जा सकता है कि अर्हत् की अवधारणा का सूत्रपात् वेदों के समय में तो था ही। उससे पूर्व अर्हत् की अवधारणा का स्रोत आज उपलब्ध नहीं हो पाता। ___ वेदों से परवर्ती साहित्य महर्षि पाणिनी (ई. पू. 5 वीं शति) के व्याकरण ग्रन्थ में अर्हत् की व्युत्पत्ति किस धातु से हुई है, उसका उल्लेख है-अर्ह धातु पूजा एवं 1. अर्थववेद शॉ. शौ. 20.13.3 2. वही
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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