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________________ (246) वंदन आवश्यक का फल बतलाया है कि "गुरुवंदना से जीव नीचगोत्र कर्म का क्षय करके उच्चगोत्र कर्म का बंध करता है, और अप्रतिहत सौभाग्यवाला तथा सफल आज्ञावाला होता हुआ सर्वत्र आदर प्राप्त करता है। वंदन करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय की उपलब्धि होती है। सद्गुरुओं के प्रति अनन्य श्रद्धा व्यक्त होती है। आज्ञा पालन होने से शुद्ध धर्म की आराधना होती है। अतः साधक को सतत् जागरूक रहकर वंदन रहना चाहिये। उत्तराध्यन में इसकी पुष्टि की गई है "वंदन करने से व्यक्ति लोकप्रियता प्राप्त करता है।"२ जैन परंपरा के समान बौद्ध एवं वैदिक परंपरा में भी वंदन को महत्त्वपूर्ण स्थानं आवश्यक के समान वर्णित किया है। धम्मपद में उल्लेख है कि "पुण्य की इच्छा से किया व्यक्ति का वर्षभर में यज्ञ और हवन का फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चतुर्थ भाग भी नहीं है। अतः सरल मानस वाले महात्माओं को नमन करना चाहिये। सदा वृद्धों की सेवाकरने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएं वृद्धि को प्राप्त होती है-आयु, सौन्दर्य, सुख और बल।३ वैदिक परंपरा में भी वदंन सद्गुणों की वृद्धि के लिए आवश्यक माना है। श्रीमद्भागवत में नवधाभक्ति का उल्लेख है। उस नवधाभक्ति में वंदन भी भक्ति का एक प्रकार बताया गया है। श्रीमद् भगवद्गीता में 'मां नमस्कुरु' कहकर श्रीकृष्ण ने वंदन के लिए भक्तों को उत्प्रेरित किया है। इस प्रकार सर्व परंपराओं में वंदन' को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। जैन परंपरा में इसकी गणना आवश्यक में करके इसके गौरव में वृद्धि की है। 4. प्रतिक्रमण (स्खलितनिन्दना-पापों की आलोचना)__प्रतिक्रमण जैन परंपरा का एक विशिष्ट प्रक्रिया शब्द है। जिसका शाब्दिक अर्थ है-पुनः लौटना एवं आचार्य हेमचंद्र के अनुसार शभु योगों में से अशभु योगों में गये हुए अपने आपको पुनः शुभ योगों में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। हम 1. उत्तरा. 29.10 2. वही 29.10 3. धम्म पद 109 4. मुनिस्मृति 2.121 5. श्रीमद्भागवत पुराण 7.5.23 6. गीता 18.65 7. योगाशास्त्र, तृतीय प्रकाश स्वोपज्ञवृत्ति
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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