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________________ (17) हैं तथापि बहिरात्मा का स्वरूप निर्देश स्थल स्थल पर दृष्टिगत होता है / बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीनों ही प्रकार की आत्माओं के स्वरूपलक्षण का उल्लेख सर्वत्र किया गया है। बहिरात्मा को बाल, मूढ, मंद, अनार्य, अज्ञानी, कामकामी, महाश्रद्धी, अमुनि कहकर सम्बोधित किया है तो अन्तरात्मा को मेघावी, ज्ञानी, पंडित, वीर, धीर, सम्यक्त्वदर्शी, अनन्यदर्शी, अप्रमत्त, आर्य, दीर्घदर्शी, मतिमंत, निर्ग्रन्थ, निष्कर्मदर्शी, महर्षि, प्रज्ञामंत, परमचक्षु कहकर सम्मानित किया है। परमात्मा को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सिद्ध आदि नामों से आलेखित किया है। वस्तुतः जैन दर्शन अर्थ प्रधान दर्शन है, भाव प्रधान है। यहाँ शब्द पर विशेष भार न देकर अर्थ को ही प्रधानता दी गई है। अरिहन्त परमात्मा की धर्म-देशना भी अर्थप्रधान ही मानी गई है। द्वादशाङ्गी को सूत्रबद्ध-शब्द देने का आधार अर्थ प्रधान उपदेश है। इसी प्रकार बहिरात्मादि अवस्थाओं का उल्लेख भिन्न-भिन्न नामों से आचाराङ्ग सूत्र में अभिहित किया है। इन्हीं नामों को सूत्रकृताङ्ग में भी आलेखित किया गया है। हालांकि आचाराङ्ग आदि प्राचीन ग्रन्थों में इन त्रिविध आत्माओं का स्वरूप परिलक्षित हुआ है। तथापि इस वर्गीकरण के विकसित स्वरूप का श्रेय आचार्य कुंदकुंद को है। पश्चात्वर्ती आचार्यों के ग्रन्थों में इसका अनुकरण अनुलक्षित होता है। कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्दु, हरिभद्र, शुभचन्द्र, अमृतचन्द्र, गुणभद्र, अमतिगति, देवसेन, ब्रह्मदेव के ग्रन्थों में इन तीनों ही भेद पर समुचित प्रकाश डाला है। बहिरात्मा जैसा कि इस अवस्था का नाम ही है आत्मनिरपेक्ष बहिर्मुखी वृत्ति / अज्ञानी जीवनकाल-अकाल की परवाह किये बिना, माता-पिता और पत्नि आदि में तथा धन में गाढ़ आसक्ति रखकर रात दिन चिन्ता की भट्ठी में जलता रहता है, विश्व को लूटता है और विषयों में दत्तचित्त होकर बिना विचारे हिंसकवृत्ति से अनेकों दुष्कर्म कर डालता है। ये मोह से घिरे रहते है। स्वर्ण, रत्न, आभूषण स्त्री आदि प्राप्त करके उसमें आसक्त हो जाते हैं। यहाँ न तप है अथवा न इंद्रियदमन, 1. परमात्म प्रकाश की अंग्रेजी प्रस्तावना (डॉ. एन. एन. उपाध्ये पृ. 31 तथा हिन्दी रूपान्तर (पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री) प. 101. 2. आवश्यक नियुक्ति, गा. 1921, विशेषावश्यक भाष्य 2126. 3. आचाराङ्ग 1.2.2, 1.2.3, सूत्र. 1.1.1.6, 1.2.1.20, 1.1.1.10, 1.2.1.6.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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