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________________ (18) अहिंसादि व्रत फलवान् देखे जाते हैं। इस प्रकार निरा अज्ञानी उसमें मूढ़ बना हुआ विपरीत प्रवृत्ति करता है। वह जरा और मृत्यु में फंसा हुआ, किंकर्तव्यविमूढ धर्म को नहीं जानता है। वह आरंभजीवी अज्ञानी विषयाभिलाषा में पीड़ित होकर अशरण को शरण मानकर पापकारी सावध कार्यों में रमण करता है, प्रसन्न होता है। आचार्य कुंदकुंद जो श्रमण आवश्यक से परिहीन है, वचन विलास में लगा रहता है, धर्म ध्यान नहीं करता वह श्रमण भी मिथ्यादृष्टि अर्थात् बहिरात्मा है।' बहिरात्मा का स्वरूप निर्देश करते पुनः कहते हैं "मूढ दृष्टि बहिरात्मा अपने स्वरूप से च्युत होता हुआ अपने शरीर को आत्मा मानता है।'' वह आत्मोत्पन्न ज्ञान ध्यान रूपी सुखामृत रसायण के अनुभव का त्याग करके इन्द्रिय सुखों का अनुभव करता है। शरीर, स्त्री, पुत्रादि, रागद्वेष, मोह रूप विभाव को आत्म स्वरूप मानता है। इस प्रकार बहिरात्मा में निम्नलिखित तत्त्व विद्यमान रहते हैं।०१. मिथ्यात्वोदय 2. तीव्र कषाय विष 3. देहात्म बुद्धि 4. हेयोपादेय विचारशून्य 5. गाढ़ आसक्ति 1. आचा. 1.1.2.2 सूत्र. 1.1.1.14 2. आचार.१.२.३.,१.४.४, सूत्र.१.२.११, 1.2.1.3 3. आचा. 1.3.1 4. आचा. 1.1.5.1, सूत्र. 1.1.4.1 रयण सार 135, ज्ञानसार, 30. 5. नि. सा. 141, 149-152 6. नि. सा. 150. 7. नि. सा. 141, योगसार 8. 8. मोक्ष पाहुड, 4, 5, 8, 1, 10, 11. 9. रयण सार, 141, योगसार 8. १०.(क) वही, 134, प्रव. सार ता. वृ. 238, 329 / 12. (ख) अध्यात्म कमल मार्तण्ड, 12 (ग) समाधि तंत्र, 5 (घ) परमात्म प्रकाश, 1.13. (च) योग सार, 10 (छ) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, 193
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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