SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (15) आचाराङ्ग आदि में इन तीनों भेद का वर्णन तो उपलब्ध होता है, किन्तु स्पष्टतया ये तीन भेद हैं, तथा प्रकार की संयोजना नहीं मिलती। ___ पौर्वात्य दार्शनिकों ने ही नहीं वरन् पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी आत्मा की उत्कर्ष-अपकर्ष अवस्था पर ध्यान केन्द्रित किया है। प्लेटो ने ज्ञान को धर्म और अज्ञान को अधर्म माना है। साथ ही दावा किया है कि वास्तविक ज्ञानी कभी अधर्म नहीं कर सकता क्योंकि धर्म ही उसका स्वरूप है। यह ज्ञान ही परम आनन्द है। सांसारिक सुखों में उत्कर्षापकर्ष का तारतम्य है। उनके अनुसार इंद्रिय सुख के ऊपर भावना सुख तथा भावना सुख के ऊपर बुद्धि सुख और बुद्धि सुख से भी स्वानुभूमित सुख श्रेष्ठ है। अज्ञानी जन इन्द्रिय-सुखों से आकृष्ट होते हैं। ____ 'रिपब्लिक' में प्लेटो ने कहा है, "ये लोग (विषयसुख के प्रेमी) निरे पशुओं के समान हैं, इनकी दृष्टि नीचे है और शरीर पृथ्वी पर झक रहे हैं। ये लोग खाते पीते और मुटाते हैं तथा सन्तानोत्पत्ति में लगे रहते हैं। विषयसुखों में अत्यधिक प्रेम के कारण ये मानव-पशु अपने लोहे जैसे सींगों और खुरों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं और दुलत्तियाँ झाड़ते हैं और अपनी सदा अशान्त तृष्णा के कारण एक दूसरे के प्राण लेते रहते हैं।"२ प्लेटो के अनुसार "इस संसार में दुःखपूर्वक जीनेवाला धार्मिक व्यक्ति सुखपूर्वक जीनेवाले अधार्मिक व्यक्ति से कई गुना बड़ा है, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति को आत्म संतोष रूपी सर्वोत्तम सुख प्राप्त है। अपनी आत्मा को बेचकर सारे विश्व को खरीद लेने में भी कोई लाभ नहीं।"३ ___ इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर प्लेटो ने जीवात्मा के तीन रूप निर्देश किये हैं - 1. बुद्धि (cognition) 2. संकल्प (conation) 3. वेदना। बुद्धि का धर्म ज्ञान (wisdom), संकल्प का धर्म बल (courage) और वेदना का धर्म संवेदनात्मक क्रिया (appetite) है। जिनमें ज्ञान का प्राधान्य है वे 'संरक्षक' (guardians), जिनमें बल का प्राधान्य है वे 'सैनिक' (soldiers), और जिनमें क्रिया का प्राधान्य है वे पृथग्जन (artisans) कहलाते हैं। 1. पाश्चात्य दर्शन, पृ. 36-37 2. वही, पृ. 37 3. वही। 4. वही। 5. पाश्चात्य दर्शन, पृ. 37.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy