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________________ (14) न्याय वैशेषिक आत्मा को चेतन कहकर भी, आत्मा में चैतन्य साहजिक न मानकर आगन्तुक गुण रूप में स्वीकार करते हैं। शरीर, इंद्रिय और मन आदि का संबंध हो तब तक ही उनके द्वारा उत्पन्न ज्ञान आत्मा में होते हैं। इन ज्ञानों को धारण करने की शक्ति अर्थात् उपादानकारणता ही इनके मत में चैतन्य है। अध्यात्मिक-विकास की अपेक्षा आत्मा के भेद ___जैसा कि पूर्व में कथन किया है कि जैन दर्शन में आत्मा की योग्यता के विषय में, स्वरूप में, समानता मानी गई है। आत्मोत्थान की सहज योग्यता समग्र आत्माओं में एक समान है। फिर भी सभी का विकास एक सा नहीं होने का कारण यह है कि उसका पुरुषार्थ आत्माभिमुख नहीं होता। जैन धर्म-दर्शन आत्मा की उच्चावस्था आत्म-अपेक्षा ही स्वीकार करता है। जब तक आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप के अभिमुख नहीं होगा, तब तक अपनी शुद्धात्म दशा का प्रगटीकरण नहीं कर पाएगा। यह प्रत्येक आत्मा के पुरुषार्थ एवं निमित्त के बलाबल पर ही आधारित है। इसी आत्म-सापेक्ष अवस्थाओं को लक्ष्य में रखकर जैन दार्शनिक आत्मा के तीन भेद करते हैं 1. बहिरात्मा 2. अन्तरात्मा 3. परमात्मा आचार्य कुंदकुंद', पूज्यपाद, योगेन्दु, शुभचन्द्राचार्य', स्वामिकार्तिकेय', नेमिचन्द, अमृतचन्द', राजमल्ल, अमितगति', देवसेन", ब्रह्मसेन आदि आचार्यों ने उपर्युक्त तीनों भेदों का उल्लेख स्वग्रन्थों में किया है। आगम ग्रन्थ 1. (क) मोक्ष पाहुड, गा.४ (ख) रयण सार (ग) नियमसार 2. समाधिशतक, 4 3. (क) परमात्मप्रकाश 1.11-12. (ख) योगसार-६ ४.ज्ञानार्णव, 32.5 5. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-१९२ 6. द्रव्यसंग्रह 14 7. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ८.अध्यात्मक कमल मार्तण्ड-१२ 9. (क) योगसार (ख) अमितगति श्रावकाचार 10. ज्ञानसार, गा. 29 11. द्रव्यसंग्रह टीका, 14
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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