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________________ (13) करती। अतः मोक्ष का प्रश्न उद्भवित नहीं होता। __ वैदिक दर्शनों में आत्मतत्त्व की कूटस्थनित्यता मान्य की गई है। कोई जीवात्मा और. परमात्मा का भेद स्वीकारे या सर्वथा अभेद स्वीकारे या भेदाभेद माने। इसी प्रकार कोई आत्मा को विभु माने या अणु माने, कोई बहुत्व माने या एकत्व माने किन्तु वह आत्मा को कूटस्थ नित्य तो मानते ही है। कणाद का वैशेषिक दर्शन और उसका अनुसरण करने वाले, अक्षपाद का न्यायदर्शन दोनों ही आत्मा के स्वरूप के विषय में एकमत है। दोनों के मत में आत्मा कूटस्थनित्य और देहभेद से भिन्न है और ये अपवर्ग या मुक्ति को भी स्वीकारते हैं। कपिल का सांख्य दर्शन और पातंजल का योगदर्शन दोनों देहभेदे आत्मभेद मानकर आत्मा का कूटस्थ नित्यत्व भी मानते हैं। अपवाद मात्र से अन्तर इतना ही है कि चौबीस तत्त्व मानने वाला सांख्य का प्राचीन स्तर प्रकृति से भिन्न ऐसे पुरुष का अस्तित्व नहीं मानकर जीवतत्त्व, पुनर्जन्म और मोक्ष के विचारों को प्रकृति में स्वीकार कर, प्रकृति को कूटस्थ नित्य नहीं वरन् परिणामिनित्य स्वीकार करते हैं। औपनिषद्दर्शन की अनेक शाखाओं में से शंकर केवलाद्वैतवादी और एक अखण्ड ब्रह्मतत्त्ववादी हैं। वे ब्रह्मतत्त्व का कूटस्थ-नित्य स्वरूप स्वीकारते हैं। जबकि रामामुज विशिष्टाद्वैत होकर ब्रह्म तत्त्व से किंचिद् भिन्न ऐसे जड़ और चेतन जीवतत्त्व को वास्तविक रूप से मान्य करते हैं। मध्व तो न्यायवैशेषिक की भांति द्वैतवादी होने से जीवात्माओं का बहुत्व मानकर उनका पारमार्थिक अस्तित्व मानते हैं। फर्क यही है कि वे रामानुज की भांति जीव को अणुरूप मानकर उनका कूटस्थ नित्यत्व घटाते हैं। मध्व ब्रह्म या विष्णु तत्त्व को तो जीव से भिन्न और कूटस्थनित्य मानते ही हैं और ही विभु भी स्वीकार करते हैं। वल्लभ ब्रह्मतत्त्व को विभु मानकर उसके परिणामस्वरूप ही जीव-जगत का वर्णन करते हैं। ऐसा मानने से वे परमब्रह्म में परिणामित्व की आनेवाली आपत्ति को टालने के लिये उसे अविकृत परिणामी कहते हैं अर्थात् ब्रह्म परिणामी होने पर भी उसमें विकार नहीं होता। इस प्रकार वल्लभ सांख्य की प्रकृति का परिणामित्व ब्रह्मतत्व में मानकर भी उसे अविकृत परिणामि कहकर कूटस्थनित्यत्व का भिन्न प्रकार से समर्थन करते हैं।' 1. गो. ह. भट्ट कृत ब्रह्मसूत्र-अणुभाष्य के गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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