SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (12) स्वीकार करते। इसमें पहले प्रकार वाले कूटस्थनित्यवादी कहलाये तो दूसरे परिणामिनित्यवादी। परन्तु दोनों ने तत्त्व को नित्य या निरन्तर तो स्वीकार किया ही है। अन्तर परिवर्तन होने पर का है। द्रव्य कभी अपूर्व उत्पन्न नहीं होता और न ही सर्वथा उसका विनाश होता है। शाश्वत और उच्छेदवाद वस्तुतः दोनों परस्पर विरुद्ध मन्तव्य है। ऐसी अन्तिम कोटियाँ एकान्त या एकांगी होने से पारमार्थिक नहीं हो सकती, ऐसे मन्तव्यों से बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा विकसित की। बुद्ध के दार्शनिक चिन्तन का मूल अर्थ यही है कि कोई भी द्रव्य या तत्त्व न तो मात्र शाश्वत हो सकता है और न ही मात्र उच्छेदशील। बुद्ध तत्त्व उसे स्वीकार करते हैं कि जिसमें न तो शाश्वतता हो और न ही उच्छेदता। इस प्रकार कूटस्थ और नित्यत्व न हो ऐसा मध्यममार्ग बुद्ध ने स्वीकार किया। इस मध्यममार्ग विचार में से क्रमशः सन्तति-नित्यतावाद विकसित हुआ। तात्पर्य इसका यह है कि परिवर्तन जिसमें हो, ऐसा कोई अनुस्यूत या अखंड द्रव्य नहीं है, परन्तु पूर्वोत्तर क्षणों में प्रवर्तती एक सतत धारामात्र है। इस प्रकार ये पुनर्जन्म-मत में विश्वास करते हैं। परन्तु पुनर्जन्म के स्वीकार से अर्थात् जन्मजन्मान्तर में चित्त या चैतन्य धारा का सातत्य स्वीकारना पड़ा। दूसरी बात यह है कि सन्तति-नित्यतावाद यह कूटस्थ नित्यता और परिणामि नित्यता दोनों का विरोध करने वाला एक ऐसा पक्ष है कि जिसमें दोनों पक्षों के आक्षेपों का निराकरण करके अपना अस्तित्व साबित करने का। इधर कूटस्थनित्यवादी और परिणामिनित्य दोनों ही वादों के प्रहारों, आक्षेपों का निवारण भी करना था। इस प्रकार प्रत्येक पक्ष पर दूसरे पक्ष का परोक्ष रूप से प्रहार पड़ा ही है। भारतीय परम्परा चार विभागों में समाविष्ट होती है-वैदिक, जैन, बौद्ध, आजीवक। आजीवक परम्परा का इतिहास विस्तृत होने पर भी आज उनका स्वतंत्र साम्प्रदायिक साहित्य उपलब्ध नहीं है। इतर परम्पराओं के साहित्य में संग्रहित रूप में ही प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा में 6 दर्शनों का समावेश होता है- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा। पूर्वमीमांसा, उपनिषद् आदि मोक्षवादी विचारों का आदर करती है, किन्तु वास्तव में वह कर्म मीमांसा है। और कर्म-फल के रूप में स्वर्ग से इतर उच्च आदर्श या ध्येय का विचार नहीं 1. दीघनिकायगत ब्रह्मजालसुत्तः संयुक्तनिकाय 12. 17. 12. 24.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy