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________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी , ज्ञानोपयोग 6. विशुद्धि 10. दि.यसम्पन्नता 11 आवश्यकापरिहाणि 12. शीलवतानतिचार 13. क्ष--लव (अभीक्षण-संवेग) 14. यथाशक्ति तप 15. यथाशक्ति त्याग 16. वैयावृत्य करण 17. संम--साधु-समाधिकरण 18. अपूर्व ज्ञान--नवीन ज्ञान अर्थात् ज्ञान से हेय, ज्ञेय और उपादेय के - स्वरूप को यथार्थ के रूप से जानना। 16. श्रुतभक्ति 20. प्रवचन प्रभावना अर्थात् अरहन्त भगवान् द्वारा उपदिष्ट प्रवचनों का बार-बार स्वयं स्वाध्याय करके अपने हृदय में अनुप्रेक्षापूर्वक उसे स्थापित करना और साथ-साथ अन्य भव्य आत्माओं को भी प्रमादरहित होकर शास्त्रविहित उपदेश सुनाकर उनके हृदय में उसका प्रभाव स्थापित करना। सोलह कारण भावनाओं तथा बीस स्थानकों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। सिद्धभक्ति का अरहन्त भक्ति में,स्थविर तथा तपस्वीभक्ति का बहुश्रुतभक्ति में एंव अपूर्वज्ञान का अभीक्षण ज्ञानोपयोग मे अन्तर्भाव हो जाता है। तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध मनुष्यगति में ही होता है, चाहे वह स्त्री हो, पुरुष हो या नपुंसक हो-इनमें से कोई भी हो, यदि वह शुभ लेश्या' वाला है, और विशंति स्थान को उसने अच्छी प्रकार पुनः पुनः आसेवन किया है अथवा इन बीस स्थानों में से एक, दो, तीन आदि स्थानों का सेवन कर उन्हें उसने अत्यन्त पुष्ट कर लिया है, तो वह तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करता है। जिस भव में वह तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करता है,उसका वह प्रथम भाव होता है, 1. जिसके द्वारा जीव अपने को पुण्य और पाप से लिप्त करे, उसे लेश्या कहते हैं / कृष्ण, नील, कापोत ये तीन अशुभ तथा पीत, पद्म एवं शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं होती हैं। विस्तृत जानकारी के लिए दे०-गो०जी०, गा० 486-552
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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