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________________ 51 अरहन्त परमेष्ठी 8. संघसाधुसमाधिकरण : चतुर्विध संघऔर विशेषकर साधुओं को समाधि पहुंचाना अर्थात् ऐसा करना जिससे वे तन, मन से स्वस्थ रहें वही संघसाधु समाधिकरण है। 6. वैयावृत्यकरण : कोई भी गुणी यदि कठिनाई में पड़ जाए तो उस समय योग्य ढंग से उसकी कठिनाई दूर करने का प्रयत्न करना वैय्यावृत्यकरण है। 10-13. चतुः भक्ति : अरिहन्त,आचार्य, बहुश्रुतऔरशास्त्र-इनचारों में शुद्ध निष्ठापूर्वक अनुराग रखना चतुःभक्ति कहलाती है। 14. आवश्यकापरिहाणि : सामयिक आदि षडावश्यकों के अनुष्ठान को भाव से न छोड़ना आवश्यकापरिहाणि है। 15. मोक्षमार्ग प्रभावना : अभिमान को त्याग कर ज्ञान आदि मोक्षमार्ग को जीवन में उतारना तथा दूसरों को उसका उपदेश देकर प्रभाव बढ़ाना मोक्षमार्ग प्रभावना बतलायी गयी हैं 16. प्रवचनवत्सल्य : जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है वैसे ही सहधर्मियों पर निष्काम स्नेह रखना प्रवचनवत्सल्य है।' कुछ शास्त्रों में तीर्थकर नामकर्म के उपार्जन हेतु निम्नबीस साधनाओं (स्थानकों) को आवश्यक माना गया है १-७.अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत एवंतपस्वी-भक्ति 1. विस्तार के लिए दें-त०वृ०६.२४ तथा (संघवी) त०सू० पृ० 162-63 2. इमेहि य णं बीसाएहि य कारणेहिं आसेविय बहुलीकएहिं तित्थरनामगोयं कम्मं निव्वत्तिसुं.तंजहाअरहंत, सिद्ध, पवयण, गुरु,थेर,बहुस्सुए, तवस्सीसुं। वच्छल्लयाइ तेसिं अभिक्खणणाणोवओगे य।। दसंण, विणए, आवस्सए य, सीलव्वए निरइयारं / खणलव, तवच्चियाए, वेयावच्चे, समाही य / / अपुव्वणाणगहणे, सुयभत्ती, पययणे पभावणया। एऐहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो।। ज्ञाता०८५
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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