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________________ 53 अरहन्त परमेष्ठी उसके बाद वह मरकर दूसरे भव में या तो देवपर्याय में जाता है या नरकपर्याय में-वह उसका दूसरा भव होता है, वहां से निकल कर फिर वह मनुष्य भव में आता है-वह उसका तीसरा भव होता है। इस भव में वह तीर्थंकर होकर सामयिक प्ररूपणा आदि द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का क्षय करके सिद्ध हो जाता 4. तीर्थकर की माता के स्वप्न : देव हो या नारकी अथवा मनुष्य ही क्यों न हो, वह जब अपनी आयु पूर्ण कर तीर्थंकरत्व की प्राप्ति हेतु माता के गर्भ में प्रवेश करता है तो उससे पूर्व रात्रि में माता को 14 अथवा 16 स्वप्न दिखाई पड़ते हैं और वे स्वप्न हैं-(१) सफेद हाथी, (२)सुलक्षण उजला बैल (वृषभ), (3) सौम्य सिंह,(४)शुभअभिषेक, (5) मनमोहिनी माला, (6) चन्द्र, (7) सूर्य, (8) सुन्दर पताका, (६)शुद्ध जल से पूर्ण तथा कमल के गुच्छों से शोभायमान कलश (10) कमल से सुशोभित सरोवर, (11) क्षीर सागर, (12) देवविमान, (13) रत्नराशि, और (14) निधूम अग्निशिखा। इन 14 स्वप्नों की मान्यता श्वेताम्बर आम्नाय में मिलती है तथा दिगम्बरों की मान्यता कुछ और इनसे भिन्नता रखती है। वे गर्भ में आने वाले तीर्थंकर की माता को 16 स्वप्न बतलाते हैं। इनके अनुसार वे स्वप्न हैं-(१) सफेद हाथी, (2) वृषभराज, (3) मृगराज, (4) कमलासन पर सुशोभित लक्ष्मी, (5) दो पुष्पमालाएं, (6) कलायुक्त चन्द्रमा, (7) उदित होता हुआ सूर्य, (8) जल से भरे हुए दो स्वर्ण कलश, (6) जलक्रीड़ा करती हुई दो मछलियां, (10) दिव्य सरोवर, (11) क्षीर सागर, (12) दिव्य सिंहासन, (13) देवविमान (14) धरणेन्द्र का विमान, (15) रत्नराशि और (16) निर्धूम अग्निशिखा।' उपर्युक्त स्वप्न तीर्थंकर कीमाताहीदेखती है। सामान्य अरहन्त (केवली) की माता को ये विलक्षण स्वप्न नहीं दिखाई देते हैं। यही तीर्थंकर अरहन्त तथा केवली अरहन्त के स्वरूप में एक विशेष भिन्नता है। ५-तीर्थकरों के पंच कल्याणक : तीर्थंकरों के जीवन में पांच प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण अर्थात् परमकल्याणकारी माने जाते हैं / ये प्रसंग जैन जगत् में पंचकल्याणक के नाम से जाने जाते हैं | वे पंचकल्याणक निम्न हैं -- 1. दे०-अनुयोगद्वारसूत्र, सू० 248 टीका, पृ०७८३-८५ 2. कल्पसूत्र 5 3. दे०-वीरवर्धमानचरित, श्लो० 7.61-68 तथा आदि० 12.105-116 4. (क) पंच महाकल्लाणा सव्वेसिं जिणाणं हवंति नियमेण। (हरिभद्र) पंचासक, 424 (ख) जस्स कम्मसुदएण जीवो पंचमहाकल्लाणाणि पाविदूण तित्थं दुवालसंगं कुणदितं तित्थयरणामं / धवला टीका, पुस्तक १३.पृ० 366
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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