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________________ 38 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी गए हैं। वे हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय / ' (1) सातावेदनीय-जिसके उद्य से प्राणी सुख का अनुभव करे वह सातावेदनीय कर्म है। (२)असातावेदनीय--जिसके उद्य से प्राणीको दुःख काअनुभव हो वह असातावेदनीय कर्म है। इन दोनों के कई अवान्तर भेद भी हो सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में असातावेदनीय रूपसे क्रोध, मान,मायाऔर लोभवेदनीय का उल्लेख मिलता है | पुण्यरूप और पापरूप जितने भी कर्म सम्भव हैं वे सब इनके अवान्तर भेद हो सकते है। 4. मोहनीय कर्मः जिस कर्म के उद्य से जीव अपने स्वरूप को भूलकर परपदार्थों में ममत्व रखे, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। इस कर्म के प्रभाव से जीव विषयों में आसक्त रहता है और उसे अपनी मूढता का पता नहीं रहता। यह कर्म सब कर्मों में प्रधान है क्योंकि इस कर्म के नष्ट होते ही अन्य कर्म भी जल्दी ही क्षीण हो जाते हैं। तत्त्वों में श्रद्धान और सदाचार में प्रवृत्ति न होने के कारण मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद किए गए हैं (1) दर्शनमोहनीय और (2) चारित्रमोहनीय / दर्शनमोहनीय कर्म के तीन अवान्तर भेद हैं--(१) सम्यक्त्व मोहनीय, (2) मिथ्यात्व मोहनीय, (3) सम्यक्त्वमिथ्यात्व मोहनीय / ' चारित्रमोहनीय कर्म के पच्चीस अवान्तर भेद हो जाते हैं। सोलह कषाय--क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय के मुख्य चार भेद हैं। तीव्रता के तरतमभाव की दृष्टि से प्रत्येक के (1) अनन्तानुबन्धी, (2) अप्रत्याख्यानावरण, (3) प्रत्याख्यानावरण, और (4) संज्वलन के भेद से चार-चार और भेद हो जाते हैं,। नौ कषाय (ईषत् मनोविकार)-(१) हास्य, (2) रति, (3) अरति, (4) शोक, (5) भय, (6) जुगुप्सा, (7) स्त्रीवेद, (8) पुरुषवेद और (6) नपुंसकवेद ।इस प्रकार इन सभी 1. वेदणीयं पि य दुविहं सायमसायं च आहियं / उ० 33.7 2. दे०-त०वृ०८.८ 3. दे-उ० 26.68-71 4. दे०-कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ०२५. 5. लोभविजएणं संतोसीभावंजणयइ, लोभवेयणिज्जं कम्म नबन्धइ, पुलबद्धंचनिज्जरेइ।। उ०२६.७१ 6. मोहणिज्ज पि दुविहं दंसणे चरणे तहा।। उ० 33.8 7. सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तरमेव य / एयाओ तिन्नि पयडीओ मोहणिज्जस्स दंसणे / / वही, 33.6 ॐ ॐ ॐ
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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