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________________ अरहन्त परमेष्ठी 37 2. दर्शनावरणीय कर्म : जो पदार्थों के सामान्य ज्ञान या आत्मबोधरूप दर्शन गुण का आवरक है उसे दर्शनावरणीय कर्म माना गया है। इसके नौ अवान्तर भेद बतलाए गए (१)चक्षुर्दर्शनावरण-जो चक्षुद्वारा होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे, वह चक्षुर्दर्शनावरण है। (2) अचक्षुर्दर्शनावरण- जो चक्षु को छोड़कर अन्य इन्द्रियों से होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह अचक्षुर्दर्शनावरण है। (३)अवधिदर्शनावरण-जोअवधिज्ञान से पहले होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे वह अवधिदर्शनावरण है। (8) केवलदर्शमावरण-जो केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्य दर्शन को रोके वह केवलदर्शनावरण है। (5) निद्रा-जिस कर्म के उदय से ऐसी निद्राआए कि सुखपूर्वक जागा जा सके वह निद्रावेदनीय दर्शनावरण है। (6) निद्रा-निद्रा-जिस कर्म के उदय से निद्रा से जागना अत्यन्त कठिन हो वह निद्रानिद्रावेदनीय दर्शनावरण है। (7) प्रचला-जिस कर्म के उदय से बैठे-बैठे या खड़े-खड़े ही नींद आ जाए वह प्रचलावेदनीय दर्शनावरण है। (E) प्रचला-प्रथला- जिस कर्म के उदय से चलते-चलते ही नींद आ जाए वह प्रचलाप्रचलावेदनीय दर्शनावरण है। __(6) स्त्यानगृद्धि--जिस कर्म के उदय से जाग्रत अवस्था में सोचे हुए कार्य को निद्रावस्था में करने का सामर्थ्य प्रकट हो जाए वह स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण है। 3. वेदनीय कर्म : जिस कर्म के उदय से सुख या दुःख की अनुभुति होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। सुख और दुःखरूप अनुभूति होने के कारण इसके दो भेद किए 1. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचलास्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च। त०सू०८.८ 2. दे०-त०वृ०८.७
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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