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________________ अरहन्त परमेष्ठी ____ 39 को मिलाकर मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां बतलाई गयी हैं।' ५-आयुकर्म : जिस कर्म के उद्य से जीव के जीवन (आयु) की अवधि निश्चित होती है उसे आयुकर्म कहते हैं / गतियों के आधार पर इसके भी चार भेद हो जाते हैं जैसे(१) नरकायु, (2) तिर्यञ्चायु, (3) मनुष्यायु और (4) देवायु / उत्तराध्ययन सूत्र में सूत्रार्थ चिन्तन का फल बतलाते हुए लिखा है कि सूत्रार्थ के चिन्तन से जीव आयुकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल कर देता है। आयुकर्म का बन्धन कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं भी करता है। इससे यह स्पष्ट है कि आयुकर्म अन्य सात कर्मों से कुछ भिन्न प्रकार का है। उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाआदि ग्रन्थों से भी पता चलता है कि आयुकर्म का जीवन में केवल एक ही बार बन्ध होता है जबकि अन्य कर्मों का बन्ध सदैव होता रहता है। 1. दर्शनचारित्रमोहनीयकषायनोकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विषोडष नवभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानिकषायनोकषायानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमा हास्यर त्यरतिशोकभय-जुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदाः / त०सू० 8.10 2. नेरइय-तिरिक्खाउ मणुस्साउ तहेव य। देवाउयं चउत्थं तु आउकम्मं चउविहं / / उ० 33.12 3. अणुप्पेहाएणंआउयवज्जाओसतकम्मप्णबडीओघणियबन्धणबद्धाओसिढिल बन्धणबद्धाओ पकरेइ / आउयं च णं कम्मं सिय बन्धइ, सिय नो बन्धइ / उ० 26.23 आयु कर्म का बन्ध सम्पूर्ण आयु का तृतीय भाग शेष रहने पर होता है। जैसे किसी जीव की आयु 66 वर्ष की है तो वह 33 वर्ष की आयु के शेष रहने पर ही अगले भव के आयुकर्म का बन्ध करेगा। यदि उस समय आयुकर्म के बन्ध का निमित्त नहीं मिलेगा तो वह जीव अवशिष्ट आयु के त्रिभाग में अर्थात 11 वर्ष शेष रहने पर आयुकर्म का बन्ध करेगा। यदि पुनःआयुकर्म के बन्ध का निमित्त नहीं मिलता तब वह जीव अवशिष्ट आयु के त्रिभाग अर्थात् 3-2/3 वर्ष शेष रहने पर आयुकर्म का बन्ध करेगा। विषभक्षण आदि से अकाल मृत्यु होने पर जीव उपर्युक्त नियम का उल्लंघन करके तत्क्षण ही आयुकर्म का बन्ध कर लेता है। सामान्यावस्था इस तरह आयु कर्म के बन्ध का निमित्त न मिलने पर यह आयु के अन्तिम भाग तक चलता रहेगा उपर्युक्त क्रमानुसार ही आयुकर्म का बन्ध होता है फिर भी इतना अवश्य है कि आयुष्कर्म का बन्ध जीवन में केवल एक बार ही होता है। इस कर्म के बन्ध होने पर जीवन की आयु-सीमा घट अथवा बढ़ भी सकती है परन्तु नरकादि चतुर्विधरुप से जो आयुकर्म का बन्ध हो जाता है वह बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं टलता /
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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