SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी भगवान् स्वयं तो मोक्ष प्राप्त करते ही हैं, साथ ही साथ संसार के अन्य प्राणियों को भी अपने पावन उपदेश द्वारा भवसिन्धु से पार लगाते हैं। इसीलिए इन अरहन्तों को जगत् में विशेष रूपसे सम्मान दिया जाता है-नमोतस्सभगवतो अरहतो सम्माधर्मा सम्बुद्धस्स। (5) जैन वाङ्मय में अर्हत् : जैन परम्परा में भीअर्हत्को विशिष्ट सम्मान प्राप्त है। वेजैनधर्मावलम्बियों के परम आराध्य देव हैं। यहां अर्हत् किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, वह तो आध्यात्मिक गुणों के विकास से प्राप्त होने वाला मंगलमय 'पदविशेष' है / जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक भव्य प्राणी स्वपुरुषार्थ से वीतरागी, केवलज्ञानी, अर्हत् और तीर्थंकर बन सकता है। ऐसे परमाराध्य अरहन्त तीर्थङ्कर को नमस्कार हो-णमो अरहन्ताणं। अर्हत् शुद्ध संस्कृत रूप है / जैन ग्रन्थों में अर्हत् के लिए मुख्यतःअरहन्त एवं अरिहन्त शब्द मिलते हैं। इसके अतिरिक्त अरहा, अरिहा, अरिहो, अरूह, अरूहन्त एवं अरथान्त इत्यादि अन्य प्राकृत एवं अपभ्रंश शब्द भी मिलते हैं। अर्हत् शब्द की व्याख्या : जैन वाङ्मय में : 'अर्ह पूजायाम्' अर्थात् पूजार्थक 'अर्ह धातु से अर्हः प्रशंसायाम्'२ इस पाणिनि सूत्र से प्रशंसा अर्थ में शतृ प्रत्यय होकर अर्हत् पद बनता है। प्रथमा के एक वचन में 'उदिगचा सर्वनामस्थाने धातोः' इस पाणिनी सूत्र से जब नुम् का आगम होता है तब 'अर्हन्' व अर्हत् पद बन जाता है। प्राकृत भाषा में शतृ प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय होता है जिससे 'अर्हन्त' रूप बनता है। इसके अतिरिक्त प्राकृत व्याकरण के 'इ:श्रीहीक्रीतक्लान्तक्लेशग्लानस्वप्नस्पर्शहर्हिगहेषु सूत्र से र् एवं ह के मध्य इकार काआगम होने पर इसका सूचक अरिहन्त' पद बनता है तथा स्वरभक्ति से अकार का योग होने पर अरहन्त रूप भी प्राकृत भाषा में बन जाता है। इसके अतिरिक्त जो अरहा, इत्यादि शब्द हैं वे भी इन्हीं के विकसित अथवा विकृत रूप हैं। यहां यह विचारणीय विषय है कि इन पाठान्तरों का क्या कारण है ? और इन पाठों में से कौन-सा पाठ अधिक समीचीन है? . प्राचीन इतिहास, शिलालेख एवं आगम ग्रन्थों का अवलोकन करने से 1. (पाणिनि), धातुपाठ, भ्वादिगण 2. अष्टाध्यायी, 3.2.133 3. वही, 7.1.70 4. प्राकृत प्रकाश, 3.62
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy