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________________ 23 अरहन्त परमेष्ठी बहुत दूर हैं, मार्ग से वासना आदि क्लेशों के विनष्ट हो जाने से अथवा उनसे दूर होने से ही वे अर्हत् कहलाते हैं। लोक में अपने आप को पण्डित मानने वाले कुछ एक लोग लोकभय से गुप्तरूप में पाप करते हैं, परन्तु जो गुप्तपाप नहीं करते, ऐसे वे पाप अथवा रह के अभाव में अर्हत् (अरह) कहलाते हैं। आचार्य बुद्धघोष लिखते है कि अविद्या और भवतृष्णा जिसके नाभि हैं, पुण्य आदि अभिसंस्कार जिसके आरे हैं, जरा-मरण जिसकी नेमि है, आस्रव समुदयरुपीछुरेसे छेदकर,त्रिभवरुपीरथमें सब प्रकार से संयुक्त,अनादिकाल से चलता हुआ जो संस्कार चक्र है, उसे बोधिवृक्ष के नीचे, वीर्य के पैरों से शील की पृथ्वी पर खड़ा होकर, श्रद्धारुपी हाथों से, कर्मक्षय करने वाली ज्ञानरुपी कुल्हाड़ी को लेकर, जिसने सारे अरिओं अर्थात् कर्म रुपी शत्रुओं को मार डाला है, ऐसा वह सत्त्व विशेष ही अर्हत् है।' अर्हत् सभी प्राप्त कर लेने योग्य अर्थों अर्थात् प्रयोजनों को हासिल कर लेता है तथा वह अनुत्तर पुण्यक्षेत्र वाला होता है। आचार्य घोषक कहते है कि सब मनुष्यों और देवों में यदि कोई पूजा के योग्य है तो वह सत्त्व विशेष अर्हत् ही है। ऐसे अरहन्त जहां कहीं भी विहार करते हैं, वह भूमि रमणीय हो जाती है। - इस प्रकार सम्पूर्ण बौद्ध वाड्.मय में अर्हत् सर्वश्रेष्ठ पद से सम्मानित है। बौद्धों की अर्हत् में पूर्ण आस्था है। उसका आदर एवं सत्कार है। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित अर्हत् के स्वरुप के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पंहुचते हैं कि अर्हत् वह सर्वश्रेष्ठ सत्त्व है जिसके निरन्तर ज्ञान के अभ्यास से सब प्रकार के कर्म, क्लेश, आसक्ति एवं राग-द्वेष आदि शत्रु जो कि मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं, विनष्ट हो गए हैं और जिनको परमज्ञान प्राप्त हो चुका है, वे सर्वज्ञ तथा कृतकृत्य हैं। जो सभी तरह से विमुक्त तथा शान्तचित हैं, ऐसे वे अरहन्त 1. आरका हि सो सव्वकिलेसेहि सविदूर-विदूरे ठितो, मग्गेन सवासनानं किलेसानं विद्धं सितत्ता ति आरकत्ता अरहं / वही, 7.5 2. यथा च लोके ये केचि पण्डितमानिनो बाला असिलोकभयेन रहो पापं करोन्ति, एवमेसन कदाचि करोतीति पापकरणे रहाभावतोपि अरहं / वहीं, 7.24 3. यञ्चेतं अविज्जा भवतण्हामयनाभि पुञआदि अभिसखारारं जरामरणनेमि-आसवसमुदयमये अक्खेन विज्झित्वा तिभवरथे समायोजितं अनादिकालप्पवत्तं संसारचक्कं,तस्सानेनबोधिमण्डे विरियपादेहिसीलपथवियं पतिट्ठाय सद्धाहत्थेन कम्मखयकरं आणफरसुं गहेत्वा सव्वे अरा हता ति अरानं हतत्ता पि अरहं। वही, 7.7 4. सर्वप्राप्त्यार्थप्राप्तत्वात् अनुत्तरपुण्यक्षेत्रत्वात् मूजार्हत्वाच्चाहन् / बोधिसत्त्वभूमि, पृ. 64 5. सर्वदेवमनुष्येषु पूजार्ह इत्युच्यते अर्हन् / अभिधर्मामृत, पृ.८६ 6. . यत्थारहन्तो विहरन्ति तं भूमिं रामणेय्यकं / धम्म, गा.६८
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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