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________________ प्राक्कथन पुण्यभूमि भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। संसार में जब-जब धर्म की हानि तथा अधर्म का अभ्युदय हुआ तब-तब किसी न किसी महान् शक्ति अथवा व्यक्ति का जन्म अवश्य हुआ है। भगवान कृष्ण ने जैसे गीता में कहा है __ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् / / (गीता,४७) समस्त भारतीय आस्तिक दर्शन भी ऐसे ही सर्वशक्ति सम्पन्न, निराकार, शाश्वत एवं सर्वज्ञ ईश्वर में अटूट श्रद्धा व्यक्त करते हैं किन्तु श्रवण-संस्कृति में ऐसा नहीं मिलता और अवतारवाद जैसा कि आस्तिक दर्शनों में मान्यता है, को भी स्वीकार नहीं किया गया है। जैनों के यहां वीतरागी, ज्ञानी, चितिशक्ति को प्रधानता दी गई है। इनके उपास्य एवं आराध्यदेव भी सम्यक्-सम्बुद्ध, केवली एवं वीतरागी होते हैं। जैनों के ये वीतरागी देव परमात्मा, परमज्योति स्वरूप, जिन केवली अरहन्त तीर्थकर, सर्वज्ञ एवं परमेष्ठी अनन्त चतुष्टय-अनन्तदर्शन-ज्ञान, अनन्त वीर्य एवं अनन्तसुख से सम्पन्न होते हैं। ये जिन केवली, अरहन्त तीर्थकर जन्म से मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान के धारी होते हैं। इन्द्र इन महापुरुषों के पंच कल्याणक महोत्सव देवताओं सहित सोल्लास मनाता अणिमा, लघिमा आदि अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न एवं नमस्कार करते हुए सुरेन्द्र और असुरेन्द्रों के मुकुटों में लगे हुए कान्तियुक्त रत्नों की प्रभा से जिनके चरणों के नाखून रूपी चन्द्र देदीप्यमान हो रहे हैं, जो प्रवचन रूपी वारिधि को वृद्धिंगत करने के लिए चन्द्रमा के समान हैं, जो सदैव अपने स्वरूप में स्थित रहते हैं तथा जिनका योगिजन सदैव ध्यान करते हैं ऐसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं सर्वसाधु ये पंच परमेष्ठी ही जगत् में मंगलकारी हैं। ये पांचों जिनशासन के परम गुरु हैं, सकलसिद्धि को देने वाले एवं सम्पूर्ण विनों एवं पापों के विनाशक हैं। ऐसे निर्मोही परमेष्ठी सूक्ष्म, नित्य निरामय, अमूर्त और प्रशान्तचित्त होते हैं। ये वीतरागी जिनेश्वर आठ कर्मों का विनाश करने वाले, मुक्तिरूपी वधू के कान्त, तीनों लोकों की पीड़ा को दूर करने वाले एवं संसार-सागर को सुखाने वाले हैं। ये विश्व के समस्त तत्त्वों के ज्ञाता, सर्वशिवसुखकर्ता, चैतन्यस्वरूप, धर्मप्रकाशक, स्थिरपदप्रदाता ऐसे वे
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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