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________________ xix वीतरागी भगवान् होते हैं। वे अनार्थों के नाथ और आत्मगुणों के भण्डार हैं। चिदानन्दस्वरूप, सुरासुर और मनुष्यों के द्वारा पूजित, अशरणों के शरण एवं निराधारों के आधार भी वही हैं। ___ ऐसे इन निर्विकारी, अध्यात्मरसी, परमाराध्य पंच परमेष्ठी का स्वरूप जैन्दर्शन में एकत्र उपलब्ध नहीं होता। इसी से इन्हीं को अध्ययन का आधार बनाया गया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का शीर्षक है “जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी" इन्हीं के स्वरूप विषय-वर्णन को अध्ययन की सुव्यवस्थित योजना के लिए छह परिच्छेदों में विभाजित किया जाता है - प्रथम परिच्छेद में विषय-प्रवेश स्वरूप जैनधर्म के महामन्त्र-नमस्कार मन्त्र के महत्व एवं उनकी उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए परमेष्ठी पद की निरुक्तिपरक व्याख्या की गई है। तत्पश्चात् पंच परमेष्ठियों की उपादेयता एवं महत्ता तथा उनकी संख्या निर्धारण और उनके पौर्वापर्य पर विस्तार से चिन्तन किया गया है। द्वितीय परिच्छेद अरिहन्त परमेष्ठी में भारतीय वाङ्मय में अरिहन्त, अरिहन्त शब्द का निर्वचन एवं उसके पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या आध्यात्मिक विकास और कैवल्य अर्थात् अर्हत्पद की प्राप्ति पर प्रकाश डाला गया है। यहां पर अरिहन्त के सर्वज्ञत्व, अरिहन्त एवं तीर्थकर में भेद, तीर्थकर परम्परा, तीर्थकर पद की प्राप्ति एवं उसकी साधनभूत सोलह कारणभावनाएं, बीस स्थानक तीर्थकर की माता के स्वप्न, तीर्थंकरों के पंच कल्याणक, तीर्थकर की अष्टादश-दोषरहितता, तीर्थकर के छयालीस गुण, समवसरण, उनकी दिव्यध्वनि तथा भक्ति एवं उससे प्राप्त होने वाले फल पर विस्तार से अध्ययन किया गया है। - तृतीय परिच्छेद सिद्ध परमेष्ठी में सिद्ध पद की व्याख्या, उसके पर्यायवाची शब्द, सिद्धगति, सिद्धों के मूलगुण, सिद्धों का अनुपम सुख सिद्धों का निवास स्थान एवं विभिन्न अपेक्षाओं से सिद्धों की गणना और प्रकार पर विचार किया गया है। यहां अरिहन्त और सिद्ध में भेदाभेद तथा इनमें अधिक पूज्य कौन हैं ? इन सभी पक्षों का सम्यक् निरूपण भी किया गया है। चतुर्थ परिच्छेद आचार्य परमेष्ठी से सम्बद्ध है / यद्यपि परम्परा से अरिहन्त और सिद्ध गुरु हैं किन्तु प्रत्यक्षत: आचार्य ही गुरु हैं। इन्हीं गुरु की महिमा बतलाते हुए आचार्य पद की व्याख्या एवं महत्तव, आचार्य के पर्यायवाची शब्द, आचार्य के गुण, उनकी पदप्रतिष्ठा व उनके भेदों पर प्रकाश डालते हुए आचार्य के कर्त्तव्य, उनकी चतुर्विध विशिष्ठ क्रियाओं, पांच अतिशेषों तथा संग्रह-स्थानों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ___पंचम परिच्छेद में उपाध्याय परमेष्ठी की महिमा, उपाध्याय पद की व्याख्या, उपाध्याय पद के लिए निर्धारित योग्यताएं, उपाध्याय के पच्चीस गुण, उपाध्याय के मुख्य कार्य एवं उनकी सोलह उपमाओं से उनके स्वरूप की विस्तार से चर्चा की गयी है।
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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