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________________ 95 सिद्ध परमेष्ठी वाले को वह सुख मिलता है, जो सिद्धों के अतिरिक्त और किसी को उपलब्ध नहीं है।' (अ) परम ऐश्वर्य-प्राप्ति एवं पाप-मुक्ति : यहां आचार्य समन्तभद्र का अभिमत है कि मानों भवसागर में डूबे हुए भव्य प्राणियों का उद्धार करने के लिए ही सिद्ध लोकाग्र शिखर पर विराजमान हैं अर्थात् वे संसार रूपी समुद्र में डूबे हुए प्राणियों को पार लगाते हैं तथा बड़े से बड़ा पापी स्वकृत पापों से छूट जाता है।' (आ) रत्नत्रय की प्राप्ति आचार्यशान्तिसूरिकी दृष्टि में सिद्धों को सिर झुकानासर्वोत्तमभावनमस्कार है। आचार्य सोमदेव भी कहते हैं कि सिद्धों की भक्ति से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय की उपलब्धि होती है। (ढ) अरहन्स और सिद्ध में भेद-अभेद : (अ) अभिन्नत्व : 1. इन दोनों परमात्माओं के स्वरूप का विवेचन करने पर हम पाते हैं कि अरहन्त एवं सिद्धों में कोई विशेष भिन्नता नहीं है कारण कि दोनों ही देवपद पर अवस्थित हैं / जैनदर्शन में 'देव' शब्द स्वर्ग में रहने वाले देव, देवी, ब्राह्मण या राजा आदि का वाचक नहीं है, अपितु उस परम तत्त्व की ओर संकेत करता है जिसकी उपासना करने से मनुष्य में धर्म का दिव्य तेज प्रकट होता है। इसी आध्यात्मिक दिव्यता से युक्त व्यक्ति को ही यहां देव कहा गया है। परमात्मा इसी का पर्यायवाची है। 1. अइभत्तिसंपउत्तो जो वंदइ लहुलहइ परमसुहं / वही, पृ०५८ 2. सिद्धस्त्वमिह संस्थानं लोकाग्रमगमः सताम्। प्रोद्धर्तुमिव सन्तानं शोकाब्धौ मग्नमंक्ष्यताम् / / स्तुतिविद्या, श्लो०८० 3. यद्भक्त्या शमिताकृशाघमरुजं तिष्ठेज्जनः स्वालये / ये सद्भोगकदायतीव यजते ते मे जिनाः सुप्रिये / / वही,श्लो० 116 4. नणु सिद्धमेव भगवओ, एसो सव्वोत्तमो नमोक्कारो। आणाणुपालणत्थं, भावनमोक्काररूव ति।। चेइयवंदणमहाभासं, श्लोक 751 5. कालेषु त्रिषु मुक्तिसंगमनुषस्तुत्यास्त्रिभिर्विष्टपैस्ते रत्नत्रयमंगलानि दधतां भव्येषु रत्नाकराः।। यशस्तिलक, 8.54
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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