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________________ ION जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (8) अरहन्त-भक्ति और उसका फल : जैनधर्म में अरहन्त देव परम पूज्य हैं, उन्हीं को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अतः प्रत्येक जैन साधक का यह परम कर्तव्य है कि वह आदर्श पुरुष के रूप में तीर्थकरों की स्तुति करे। यहां यह बात स्पष्ट रूप से जान लेनी चाहिए कि जैन दर्शन में जो तीर्थकरों की स्तुति की जाती है उससे किसी प्रकार के भौतिक लाभ की अपेक्षा करना व्यर्थ है, कारण कि तीर्थकर किसी को कुछ नहीं देते / गीता के कृष्ण की तरह तीर्थकर कोई इस प्रकार की उद्घोषणा भी नहीं करते कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूंगा।' जैन तीर्थंकर प्रत्यक्ष रूप से अपने भक्त की किसी भी उपलब्धि में सहायक नहीं बनते, क्योंकि ऐसा करने पर उनकी वीतरागता में बाधा आती है। तब फिर हम उनकी भक्ति क्यों करें? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट रूपसे कहा है कि 'हमतीर्थकर की स्तुति इसलिए नहीं करते हैं कि उसकी स्तुति करने अथवा उनके न करने से वह हमारा हित अथवा अहित करेगा। वे अत्यन्त सहज, भाव से कहते हैं कि हे प्रभु! तेरी प्रशंसा करने से भी कोई लाभ नहीं, क्योंकि तुम वीतराग हो, अतः स्तुति करने पर भी आप प्रसन्न भी नहीं होगें। तेरी निन्दा करने से भी कोई भय नहीं है, क्योंकि तू तो विवान्तवैर है, अर्थात् निन्दा करने पर भी नाराज नहीं होते, फिर भी हम तेरी स्तुति इसलिए करते हैं कि तेरे पुण्य गुणों के स्मरण से हमारा चित्त दुर्गुणों से पवित्र हो जाता है-- न पूज्यार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्त वैरेः। तथापि ते पुण्यगुणस्मृर्तिनः पुनातु पिंत दुरितां वनेभ्यः।। उत्तराध्ययन सूत्र में तीर्थकर स्तवन का फल बतलाते हुए कहा गया है कि 'चौबीस वीतराग तीर्थंकरों की स्तुति से जीव दर्शनविशुद्धि को प्राप्त होता है। आचार्य भद्रबाहु ने भी स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि उनके नाम स्मरण से पापों का पुंज नष्ट हो जाता है।" आचार्यवट्टकेर कहते हैं किजोप्रयत्नशीलभावसेअरहन्तकोनमस्कार करता है वह अतिशीघ्र ही सभी दुःखों से छुटकारा पा लेता है। 1. सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज / अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः / / गीता, 18.66 2 स्वयम्भुस्तोत्र, 12.2 3. चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ / उ० 26.10 4. अरिहंतनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो / आ० नि० गा० 626 5. अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्स पावदि अचिरेण कालेण / / मूला० 7.506
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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