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________________ 69 अरहन्त परमेष्ठी नहीं मानते जो बार-बार अवतार लेता है। तीर्थकर ईश्वर या किसी अव्यक्त शक्ति के अवतार नहीं होते। जैनधर्म में संसार की उत्पत्ति, संरक्षण और विनाश करने वाली कोई ऐसी शक्ति विशेष नहीं मानी गई है जो संसार का संचालन करती हो / संसार में जो जीव आदि षड्द्रव्य हैं, उनके अपने-अपने स्वभाव और कार्यकारण भाव से ही संसार का उत्पाद, स्थिति और प्रलय होता है। तीर्थकर मनुष्य रूप ही होते हैं, किन्तु वे साधारण मनुष्यों से परे, असाधारण शक्ति से सम्पन्न होते हैं।' (अ) तीर्थकर एक सामान्य जीव जैनधर्म का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि तीर्थकर का जीव अतीत में एक दिन हमारी ही तरह वासना के चंगुल में फंसा हुआ था, आधि-व्याधि और उपाधियों से संत्रस्त था, तथा हेय, ज्ञेय और उपादेय का उसे तनिक भी ध्यान नहीं था ! वह मात्र भौतिक सुखों को सच्चा सुख मानकर दिन-रात उनमें ही खोया रहता था वैराग्य का किंचित् भी विवेक उसे नहीं था परन्तु जब कदाचित् महान् पुरुषों के साथ उसकी संगति हुई तो उसके ज्ञान-चक्षु खुल गए और उसे भेद-विज्ञान की उपलब्धि हो गई। यथार्थ स्थिति का मान होने से तथा कठोर तप के बल पर उसके परम आत्मशुद्धि प्राप्त करने पर वह ही इस परम पद सरहन्तत्व पर पहुंच गया, अरहन्त परमात्मा बन गया। (A) आध्यात्मिक विकास से तीर्थकर पद-प्राप्ति सामान्य आत्माओं में से ही कोई एक आत्मा अपने आध्यात्मिक विकास की क्रमिक यात्रा करते हुए तीर्थकर के गरिमामय पद को उपलब्ध कर लेता है।जनों के अनुसार प्रत्येक आत्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। प्रत्येक आता तत्वतः स्वयं में परमात्मा है किन्तु कर्म--बन्धन के कारण उसका वह परमात्मत्वस्वरूपआवरित है। कर्मबन्धनसेमुक्तहोतेहीवही उसका परमात्मत्व न प्रगट हो जाता है। इस प्रकार तीर्थकर कीअवधारणाअवतारवाद से भिन्न है |अवतारवाद में एक ही सर्वोच्च शक्ति बार-बार जन्म लेती है जबकि तीर्थकर की अवधारणा में प्रत्येक तीर्थकर अपना भिन्न-भिन्न अस्तित्व रखता है। कोई भी आत्मा अपना आध्यात्मिक विकास करके उस पद को प्राप्त कर सकता है। वही आत्माअन्तिमसिद्ध पद को प्राप्त कर पुनः संसार में नहीं आता |अवतारवाद में आत्मा या परमात्मा ऊपर से नीचे की ओर आता है जबकि तीर्थकर की अवधारणा में कोई भव्य सत्वात्मा परमात्मत्व की ऊंचाइयों को उपलब्ध करता है। एक में जहां अवतरण है तो दूसरे में वहीं उन्नयन (उत्तरण) है। इस प्रकार दोनों अवधारणाओं में यही महत् अन्तर है। 1. दे०-- (बलभद्र), जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग प्राक्कथन, पृ०७ 2. परमात्म०, पृ० 102 -A.ams
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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