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________________ (309) भावार्थ-जो मनुष्य इस भव में आरंभ समारंभा दि में गुंथता है वह अपने आत्मा को दंड देता है; एकान्त हिंसक की पंक्ति में बैठता है और परभव में नरकादि गति को पाता है / जो पंचाग्नि तप, बालतपादि क्रियाएँ करता है वह असुरगति पाता है। यानी वह नीच देव बनता है। वहाँ अधम देव बनकर दुःखमिश्रित सुख भोगता हुआ बहुत काल बिताता है। टूटा हुआ आयुष्य कभी नहीं जुड़ता। इसलिए आयुध्य की सत्ताही में धर्मसाधन करना चाहिए। मगर बालजीव इसके विरुद्ध चलते हैं। वे ढिठाई करके अकृत्य करते लज्जित नहीं होते हैं। पापकर्म करनेवाले को यदि कोई धर्मात्मा धर्म करने की प्रेरणा करता है तो वह ढिठाई से उत्तर देता है कि, भविष्यकाल के साथ हमारा क्या संबंध है ? क्या कोई परलोक देख आया है ? परलोक होने में प्रमाण क्या है ? नास्तिक के वचन / यह स्पष्ट बात है कि, जहां आरंभ है, वहां दया का अभाव है और जहां दथा गई वहां सब कुछ गया / जब तफ मनोमंदिर में वीतराग देव की आज्ञा युक्त दयादेवी का निवास है तब ही तक सब धर्गानुष्ठान हैं / इसी लिए सूत्रकारने जो मनुष्य आरंभ में आसक्त होता हैं उस को हिंसक बताया है / कहावत में नो पद प्रचलित हैं उन में
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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