SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तब वे सुस्त हो जाते हैं / थोड़ी ही देरमें जो कार्य सिद्ध होनेवाला होता है, उसको प्रमादी बहुत देरसे सिद्ध होनेवाला कर डालता है / यह बड़े ही दुःख की बात है / प्रमादी लग्न के समय भी जब ऊँचता जाता है, तब अन्य समय में जाय उसमें तो आश्चर्य ही किप बातका है ? जो समय आत्म साधन का और कर्म की निर्जरा का हो, वही यदी कर्मबंधन का हो जाय तो समझना चाहिए कि उस मनुष्य की भवस्थिति बहुत बाकी है / बुद्धिविहीन आलसी जीव रत्नचिंतामणी का त्याग कर, काच को ग्रहण करते हैं। मनुष्य भवपमुद्र से पार करने की चारित्र रूपी नौका को छोड़ के पत्थर के समान विषय का आलंबन करता है / और अपनी कीर्ति की रक्षा करने के लिए अनेक प्रकार के कष्ट सहता है। वेही कष्ट यदि आत्म-हित के लिए सहन करे तो कुछ भी अवशेष न रहे / मगर वह तो कर्मराजा जैसे भवसमुद्र में नचाता है उसी तरह नाचता है। सूत्रकार फिर भी प्रकारान्तर से इसी विषय का उपदेश देते हैं और वे यहाँतक सूचित करते हैं कि, प्रमादी मनुष्य अन्त में नास्तिक बनजाता है। कहा है कि: ज इह आरंभनिस्सया आत्तदंडा एगंतलूपगा / गंता ते पावलोगयं चिररायं आसुरियं दिसं // 9 // ण य संखमाहु जीवितं तह वि य बालजणो पगब्भइ / पच्चुप्पन्नण कारियं को दट्टुं परलोकमागते // 10 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy