SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी ऐसे ही भाव देखे जाते हैं / जैसे-आरंभे नाथि दया / ( आरंभ में दया नहीं है / ) जीवहिंसक चाहे कैसी ही कष्ट-क्रियाएँ करे, मगर उस को कभी उच्च गति नहीं मिलती / इतना ही नहीं वह अन्त को नरक में जाता है। यदि बाल तप का जोर होता है तो वह देव गति में भी चला जाता है / मगर वहां भी वह किल्विष देव होता है / देवगति में भी उस का जीवन पराधीनता में और नीच कर्म करने में व्यतीत होता है / मनुष्य का आयुष्य वैसे ही थोड़ा होता है / उस में भी सात कारणों से और कभी हो जाती है। सात आघातों से टूटी हुई आयु वापिस नहीं संधती है / इस बात को जानते हुए भी कई अज्ञानी जीव बाल चेष्टाओं में पड़ संयम रत्न को मलिन करते हैं अथवा उस को कोड़ियों के मोल बेच देते हैं। यदि कोई उन को उपदेश देता है कि, "हे महानुभाव, उत्तम सामग्री मिली है तो भी तुम प्रमाद क्यों करते हो ! " तब वे आरंभमग्न साधु ढीठ हो, नास्तिक बन मनमाना उत्तर देते हैं / वे कहते हैं:- परलोक के होने में क्या प्रमाण है ? परलोक में जा कर तो कोई आज तक वापिस नहीं आया है / यह बात तो लोगों को व्यर्थ ही भ्रम में डालनेवाली है / किसी मनुष्यने एक ' गप : मारी कि-परलोक है / दूसरे मनुष्योंने उस को, विस्तार के साथ
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy