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________________ ( 307 ) त्याग करो; अपने आत्मा को समझाओ कि, वह क्षणवार के सुख के लिए सागरोपम के दुःख मोल न ले / अमूल्य चारित्ररत्न को सुखाभाल के लिए मत हार जाओ। " नरक-क्षेत्र की वेदना, परमाधार्मिक देवों की कीहुई वेदना, और पारस्परिक युद्धजन्य वेदना ऐसी अनेक वेदनाएँ नारकी जीवों को भोगनी पड़ती हैं। कामाधीन साधु को परभव में ये वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं। जिन्होंने व्रतमंग किया होता है वे तिर्यंच गति में जाते हैं। वहाँ उन्हें अति भार, कठोर प्रहार, तृषा, क्षुधा और पराधीनता आदि अनेक दुःख सहने पड़ते हैं। लोग तिर्यंचों के दुःखों को देखकर व्याकुल होते हैं; परन्तु क्रूर कर्म करते हुए उन्हें लेशमात्र भी ख्याल नहीं रहता है / प्रमाद सर्वत्र अशुभ फल का ही देनेवाला होता है / इसीलिए शास्त्र. कार प्रमाद का त्याग करने के लिए अनेक प्रकार के उपदेश देते हैं। प्रमादी मनुष्य अपना उदर भरने में भी आरस्य करता है। कई ऐसे आलसी भी देखे जाते हैं कि, वे दिनभर भूखे बैठ रहते हैं और अगर कोई उन्हें पानी पिलानेबाला नहीं मिलता है, तो वे दो दो तीन तीन घंटे तक प्यासे ही बैठ रह जाते हैं। ऐसे ही सारे कामों में उनकी दुर्दशा होती है। धर्मकामों में वे शून्यचित्त बैठे रहते हैं। वे समय समय की क्रियाएँ नहीं करते हैं। गप्पे मारने में वे पूरे शुर होते हैं; परन्तु प्रतिक्रपण, प्रतिलेखनका जब समय आता है
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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