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________________ (101) कार्यों को ठीक बताने का बहुत बड़ा प्रयत्न करते हैं; परन्तु होता इससे उल्टा है / वे माया रूपी नागिन को अपने हृदय में धारण कर आत्म-कल्याण के हेतु रूप तप, संयमादि कार्यों को क्षणवार में नष्ट भ्रष्ट कर देते हैं। लोगों में ख्यति पाने के लिए वे अनेक प्रकार के कष्ट उठाने में आनंद मानते हैं। आत्मघाती होने का ढौंग कर महापुरुष बनने की लालसा रखते हैं। परन्तु वास्तव में देखा नाय तो वे आत्म-क्लेशी बन, संसार सागर में सतानेशली विषक्रिया साधन करने में अगुआ बनते हैं। ऐसे मनुष्यों को ठग कह कर आत्म-स्वरूप से ठगाये हुए कहना चाहिए / ऐसे जीव बिचारे थोड़े के लिए बहुत खो देते हैं। इसके लिए 'हृदयमदीपषत्रिंशिका में जो उपदेश दिया गया है वह वास्तव में अनुकरण करने योग्य है। कार्य च किं ते परदोषदृष्टया; ___ कार्य च किं ते परचिन्तया च / वृथा कथं खिद्यसि बालबुद्धे ! ___ कुरु स्वकार्य त्यज सर्वमन्यत् // भावार्थ-हे जीव ! दूसरों के दोष देखने से तुझ को क्या मतलब है ? दूसरों की चिंता करने से भी तुझे क्या है ? हे
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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