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________________ ( १९३ ) मां पुद्गल खंध जे, तेहने जाणे पेखे ॥ लोक प्रमाणे अलोकमांए, खंड असंख्य उठि । भाग असंख्य आवलितणो, अद्धा लघुपणे दीठ ॥ २ ॥ उत्सर्पिणी अवसर्पिणीए, अतीत अनागत अद्धा | अतिशय संख्यातिगपणे, सांभलो भाव प्रबंधा ॥ एक एक द्रव्यमां चार भाव, जघन्यथी ते निरखे । असंख्याता द्रव्य दीठ, पर्यव गुरुथी परखे || चार भेद संक्षेपथी ए, नंदीसूत्र प्रकाशे । विजयलक्ष्मी सूरि ते लहे, ज्ञान भक्ति सुविलासे ॥ ३ ॥ ॥ इति चैत्यवंदन समाप्त ॥ पछी नमुध्धुणं० ॥ जावंति० ॥ नमोऽर्हत् ॥ कही स्तवन कहे, ते कहे छे. ॥ अथ स्तवन ॥ ॥ कुंवर गंभारो नजरे देखतांजी |1 ए देशी ॥ पूजा पूजो अवधिज्ञानने प्राणिया रे, समकितवंतने ए गुण होय रे || सवि जिनवर ए ज्ञाने अवतरी रे, मानव महोदय जोय रे || पूजो० ॥ १ ॥ शिवराज ऋषि विपर्यय देखतो रे, द्वीप सागर सात सात रे । वीर पसाये दोष विभंग गयो रे, प्रगट्यो अवधि गुण विख्यात रे || पूजो गुरु स्थिति साधिक छासठ सागर रे, कोइने एक समय लघु जान रे । भेद असंख्य छे तरतम योगथी रे, विशेषावश्यकमां एह वखाण रे || पूजो चारशें एक लाख तेन्रीश सहस (१३३४०० ) छे रे, ओहि नाणी मुणींद रे || ०
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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