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________________ सरिखा पाठ छे सूत्रमां, ते श्रुत गमिक सिद्धांत ॥ माये दृष्टिवादमां, शोभित गुण अनेकांत. १५ ॥ पव० ॥ ११ ॥ सरिखा आलावा नहि, ते कालिक श्रुतवंत ।। अमाषिक श्रुत ए पूजीए, त्रिकरण योग हसंत.१६ ॥ पव० ॥१२॥ अढार हजार पदे करी, आचारांग वखाण ॥ ते आगल दुगुणा पदे, अंगपविष्ट सुअनाण.१७ ॥ पव० ॥ १३ ॥ बार उपांगह जेह छे, अंगबाहिर श्रुत तेह ॥ अनंगप्रविष्ट वखाणीए, श्रुत लक्ष्मी सूरि गेह. १८ ॥ पव० ॥१४॥ सातमा ने नवमा दुहा वखते खमासमण न देवा. ॥ इति श्रुत ज्ञान समाप्त ॥ ॥ अथ तृतीय श्री अवधि ज्ञान चैत्यवंदन ॥ खमासमण दइ, इच्छा० अवधिज्ञान आराधनाथ चैत्यवंदन करूं ? इच्छं कही चैत्यवंदन कहेवू ते नीचे प्रमाणे:-- अवधिज्ञान त्रीजुं कह्यु, प्रगटे आत्मप्रत्यक्ष । क्षय उपशम आवरणनो, नवि इंद्रिय आपेक्ष । देव निरय भव पामतां, होय तेहने अवश्य । श्रद्धावंत समय कहे, मिथ्यात विभंग वश्य ॥ नर तिरिय गुणथी लहे, शुभ परिणाम संयोग । काउस्सग्गमां मुनि हास्यथी, विघटयो ते उपयोग ॥ १ ॥ जघन्यथी जाणे जुए, रुपी द्रव्य अनंता । उत्कृष्टा सवि पुद्गला, मूर्ति वस्तु मुणंता ।। क्षेत्रथी लघु अंगुलतणो, भाग असंखित देखे ।
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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