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________________ ( १५४ ) मुनिराज श्री आत्मारामजीकृत नवपदजीनी पूजामांथी सम्यग् ज्ञान पद पूजा. ॥ दोहा ॥ मिथ्या मोह कुपंथ ही, अझ तिमिर करे दूर || निज पर सत्ता सहु कहे, ज्ञानहि निर्दल सूर ॥ १॥ ॥ राग भैरवी || लागी लगन कहो || यह चाल|| ज्ञान सुकर चिन संगी, सप्तभंगी मत सारेरे ॥ अंचली० ॥ शुद्ध ज्ञान मिथ्याच्च मिटेसें, ज्ञानावरण विडारेरे ॥ षड्द्रव्य नाना बोध स्वरूपे, निज इच्छा सब वारेरे ॥ ज्ञा० ॥ १ ॥ गुरु सेवायें योग्यता प्रगटे, हेय उपादेय कारेरे ॥ ज्ञेय अनंत स्वरूपे भासे, दीप तिमिर जिम टारेरे ॥ ज्ञा० ॥ २ ॥ नित्यानित्य नाश अविनाशी, भेदाभेद अभंगीरे ॥ ॥ ज्ञा० ॥ ३ ॥ एक अनेक रूपही अरूपी, स्याद्वाद नय संगीरे अर्पितानर्पित मुख्य गौणता, साधन सिद्ध बिरंगीरे ॥ बाच्यावाच्य सअंश निरंशी, आनंदघन दुःख रंगीरे ॥ ज्ञा० ॥ ४ ॥ विभाव स्वभावी शुद्ध स्वभावी, वीतराग जड संगीरे ॥ संशय सर्वही दूर निवारे, आतम समरस चंगीरे ॥ ज्ञा० ॥५॥ ॥ दोहा ॥ सूत्र संयुत सूचीवत्, कचवर पिंड मझार ॥ बिनसे नही तिम श्रुतयुत, पामे भवनो पार ॥ १ ॥
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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