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________________ व्याजस्तुत्यलबारः 'अप्रस्तुतप्रशंसा स्यादप्रकाण्डे तु या स्तुतिः। सुखं जीवन्ति हरिणा वनेष्वपरसेविनः ॥ अन्नैरयत्नसुलभैस्तृणदर्भाकुरादिभिः । सेयमप्रस्तुतैवात्र मृगवृत्तिः प्रशस्यते ॥ राजानुवर्तनक्लेशनिर्विण्णेन मनस्विना ॥' इति । वस्तुतस्तु-अत्र व्याजस्तुतिरित्येव युक्तम् , स्तुत्या निन्दाभिव्यक्तिरित्यप्र. स्तुतप्रशंसातो वैचित्र्यविशेषसद्भावात् । अन्यथा प्रसिद्धव्याजस्तुत्युदाहरणेष्वप्यप्रस्तुताभ्यां निन्दा-स्तुतिभ्यां प्रस्तुते स्तुति-निन्दे गम्येते इत्येतावता व्याजस्तुतिमात्रमप्रस्तुतप्रशंसा स्यात् । एवं चानया प्रक्रियया यत्रान्यगतस्तुतिविवक्षयाऽन्यस्तुतिः क्रियते, तत्रापि व्याजस्तुतिरेव; अन्यस्तुतिव्याजेन तदन्यस्तुतिरित्यथानुगमसद्भावात् । यथाशिखरिणि क नु नाम कियच्चिरं किमभिधानमसावकरोत्तपः । तरुणि ! येन तवाधरपाटलं दशति बिम्बफलं शुकशावकः॥ अत्र वाता धन्या इत्यप्रस्तुतादादहमधन्य इति वैधम्र्येण प्रस्तुतोऽर्थः प्रतीयते। ( अलंकारसर्वस्व पू० १३७) दण्डी ने भी काव्यादर्श में इसे अप्रस्तुतप्रशंसा ही माना है। उनके मत से अप्रस्तुत प्रशंसा यही है, (तथाकथित) कार्यकारणनिबंधना अप्रस्तुतप्रशंसा को अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार नहीं मानना चाहिए । जैसा कि दण्डी ने कहा है :_ 'अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार वहीं होता है, जहाँ बिना किसी प्रस्ताव के किसी की स्तुति की जाय, जैसे इस उदाहरण में । 'किसी दूसरे की सेवा न करने वाले हरिण सुख से जी रहे हैं, जो अयत्न-सुलभ जल-दांकुर आदि से जीवन निर्वाह करते हैं।' यहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार ही पाया जाता है, क्योंकि यहाँ अप्रस्तुत मृगवृत्ति की प्रशंसा पाई जाती है, यह प्रशंसा उस मनस्वी व्यक्ति ने की है, जो राजसेवा करने के दुःख से खिन्न हो चुका है। - अप्पय दीक्षित दण्डी के मत से सहमत नहीं हैं उनके मत से यहाँ व्याजस्तुति अलंकार ही है, क्योंकि यहाँ प्रस्तुतप्रशंसा से यह विशिष्ट चमत्कार पाया जाता है कि यहाँ स्तुति से निंदा की म्यंजना पाई जाती है। यदि ऐसा न मानेंगे तो व्याजस्तुति के तसत् प्रसिद्ध उदाहरणों में जहाँ अप्रस्तुत निंदास्तुति के द्वारा प्रस्तुत स्तुति-निंदा की व्यञ्जना होती है, इतने से कारण से ही समस्त ब्याजस्तुति अप्रस्तुत प्रशंसा हो जायगी। अन्यगत स्तुतिनिंदा के द्वारा अन्यगत निंदास्तुति की व्यंजना का प्रकार मानने पर जहाँ अन्यगत स्तुति अभीष्ट (विवक्षित) होने पर अन्यस्तुति वाच्यरूप में पाई जाय, वहाँ भी ब्याज. स्तुति अलंकार होगा। यहाँ 'अन्यस्तुति के व्याज से अन्यस्तुति की व्यंजना' इस प्रकार 'व्याजस्तुति' शब्द की व्युत्पत्ति करने पर लक्ष्यनाम का अर्थ ठीक बैठ जाता है। इस भेद का उदाहरण निम्न है:____ कोई रसिक किसी सुन्दरी से कह रहा है :-'हे युवति, बताओ तो सही इस सुग्गे ने किस पर्वत पर, कितने दिनों, कौन सा तप किया था, कि यह तुम्हारे अधर के समान लाल रंग के बिम्बफल को चख रहा है।'
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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