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________________ १३४ कुवलयानन्दः अत्र शुकशावकस्तुत्या नायिकाधर सौभाग्या तिशयस्तुतिर्व्यज्यते ॥ ७१ ॥ ३१ व्याजनिन्दालङ्कारः निन्दाया निन्दया व्यक्तिर्व्याजनिन्देति गीयते । विधे ! स निन्द्यो यस्ते प्रागेकमेवाहरच्छिरः ॥ २७ ॥ अत्र हरनिन्दया विषमविपाकं संसारं प्रवर्तयतो विधेरभिव्यतया निन्दा व्याजनिन्दा | यथा वा विधिरेव विशेषगर्हणीयः, करट ! त्वं रट, कस्तवापराधः ? | सहकारतरौ चकार यस्ते सहवासं सरलेन कोकिलेन ॥ अन्यस्तुत्याऽन्यस्तुत्यभिव्यक्तिरिति पचमप्रकारव्याजस्तुतिप्रतिबन्दीभूते यं ( यहाँ 'तुम्हारे अधर के समान बिंबाफल को चखना ही बहुत बड़ा सौभाग्य है, तो तुम्हारे अधर का चुम्बन तो उससे भी बड़ा सौभाग्य है' यह व्यंग्यार्थ प्रतीत होता है । ) यहाँ शुकशावक की स्तुति ( वाच्यार्थ ) के द्वारा रसिक युवक नायिका के अधर के सौभाग्य की अतिशय उत्कृष्टता की स्तुति की व्यञ्जना करा रहा है । ३१. व्याजनिंदा अलंकार ७२ - जहाँ एक व्यक्ति की निंदा के द्वारा अन्य व्यक्ति की निंदा व्यंजित हो, वहाँ व्याजनिंदा कहलाती है । जैसे, हे ब्रह्मन्, वह व्यक्ति निंदनीय है, जिसने पहले तुम्हारा एक ही सिर काट लिया था । यहाँ वाच्यरूप में शिव की निन्दा प्रतीत होती है कि उन्होंने ब्रह्मा के सिर को काट दिया, किंतु इस शिवनिंदा के द्वारा कवि दारुण परिणामरूप संसार की रचना करने वाले ब्रह्मा की निंदा भी करना चाहता है, अतः यहाँ व्याजनिंदा अलंकार है । अथवा जैसे 'हे कौवे, तू चिल्लाया कर, तेरा अपराध ही क्या है ? यदि कोई विशेष निंदनीय है तो वह तू नहीं स्वयं ब्रह्मा ही हैं, जिन्होंने सरल प्रकृति के कोकिल के साथ आम के पेड़ पर तेरा निवास स्थान बनाया ।' (यहाँ अप्रस्तुत ब्रह्मा की निंदा के द्वारा प्रस्तुत कौवे की निंदा की व्यंजना होती है, अतः यहाँ व्याजनिंदा अलंकार है ।) टिप्पणी- रसिकरंजनीकार ने इसका एक उदाहरण यह भी दिया है, जो किसी भगवन्तरायसचिव का पद्य है : -- अनपायमपास्य पुष्पवृक्षं करिणं नाश्रय भृङ्ग ! दानलोभात् । अभिमूढ, स एष कर्णतालैरभिहन्याद्यदि जीवितं कुतस्ते ॥ यहाँ अप्रस्तुत भ्रमर की निंदा के द्वारा किसी हिंस्रक स्वभाव वाले व्यक्ति की सेवा करते मूर्ख की निंदा की व्यंजना हो रही है, अतः इस पद्य में भी व्याजनिंदा अलंकार है । अन्यस्तुति के द्वारा अन्यस्तुति की व्यंजना वाले व्याजस्तुति के पाँचवे प्रकार का ठीक उलटा रूप इस व्याजनिंदा में पाया जाता है। पंचम प्रकार की व्याजस्तुति तथा व्याजनिंदा के
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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