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________________ १३२ www~~ स्तुत्या निन्दाभिव्यक्तिर्यथा कुवलयानन्दः यद्वक्त्रं मुहुरीक्षसेन, धनिनां ब्रूषे न चाटून्मृषा, नैषां गर्ववचः शृणोषि न च तान्प्रत्याशया धावसि । काले बालतृणानि खादसि, परं निद्रासि निद्रागमे, तन्मे ब्रूहि कुरङ्ग ! कुत्र भवता किं नाम तप्तं तपः ? ॥ अत्र हरिणस्तुत्या राजसेवा निर्विण्णस्यात्मनो निन्दाभिव्यज्यते । अयमप्रस्तुतप्रशंसाविशेष इत्यलङ्कार सर्वस्वकारः । तेन हि सारूप्यनिबन्धनाप्रस्तुत प्रशं सोदाहरणान्तरं वैधर्म्येणापि दृश्यते । यथा धन्याः खलु वने वाताः काह्लाराः सुखशीतलाः । राममिन्दीवरश्यामं ये स्पृशन्त्यनिवारिताः ॥ अत्र 'वाता धन्याः' इत्यप्रस्तुतार्थात् 'अहमधन्यः' इति वैधम्र्येण प्रस्तुतोऽर्थः प्रतीयत इति व्युत्पादितम् । इयमेवाप्रस्तुतप्रशंसा न कार्यकारणनिबन्धनेति दण्डी । यदाह काव्यादर्श ( २३।४० ) - भिन्नविषयक स्तुति से निन्दा की अभिव्यञ्जना का उदाहरण, जैसे 'हे हिरन, बताओ तो सही, तुमने ऐसा कौन सा तप कहाँ किया है कि तुम्हें धनिकों का मुँह बार-बार नहीं देखना पड़ता, न झूठी चाटुकारिता ही करनी पड़ती है, न तुम्हें इनका गर्ववचन ही सुनना पड़ता है, न आशा के कारण इनके पीछे दौड़ना ही पड़ता है। तुम सचमुच सौभाग्यशाली हो कि समय पर ताजा घास खाते हो और निद्रा के समय निद्रा का अनुभव करते हो ।' यहाँ हिरन की स्तुति वाच्यार्थ है, किंतु कवि की विवक्षा हिरन की स्तुति में न होकर राजसेवा से दुखी अपनी आत्मा की निन्दा में है, अतः हरिणस्तुति से भिन्नविषयक स्वात्मनिन्दा व्यजित होती है। जहाँ भिन्नविषयक स्तुति या निंदा की व्यंजना होती है, वहीँ अलंकारसर्वस्वकार के मत से अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार का ही प्रकार विशेष होता है। रुय्यक ने सारूप्यनिबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा के साधर्म्यगत उदाहरणों के उपन्यस्त करने बाद इनका वैधर्म्यगत उदाहरण भी दर्शाया है, जैसे निम्न पद्य में के राम-वनगमन के बाद दशरथ कह रहे हैं :- कमलों की सुगन्ध को लेकर बहने वाले शीतल सुखद वन के पवन धन्य हैं, जो बिना किसी रोकटोक के इन्दीवर कमल के समान श्याम रामचन्द्र का स्पर्श करते हैं ।' इस पद्य में 'वाता धन्याः' इस अप्रस्तुत वाच्यार्थ के द्वारा 'मैं अधन्य हूँ' इस प्रस्तुत व्यंग्यार्थ की प्रतीति वैधर्म्य के कारण होती है, इस प्रकार रुय्यक ने भिन्नविषयक व्याज - स्तुति वाले उदाहरणों में वैधर्म्यगत सारूप्यनिबन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा मानी है । टिप्पणी- 'तेन हि' के बाद से लेकर ' इति व्युत्पादितम्' के पूर्व का उद्धरण अलंकार सर्वस्वकार य्यक का मत है, जो अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार के प्रकरण में यों पाया जाता है। एतानि साधम्र्योदाहरणानि । वैधर्म्येण यथा 1 धन्याः खलु वने वाताः कहार स्पर्शशीतलाः । राममिन्दीवरश्यामं ये स्पृशन्त्यनिवारिताः ।
SR No.023504
Book TitleKuvayalanand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas
PublisherChowkhamba Vidyabhawan
Publication Year1989
Total Pages394
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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