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________________ तत्त्वोपनिषद् - सम्भवात् । तास्वियमेव विशेषसिद्धौ समर्था, नाऽपराः, इत्यसमीक्ष्य निश्चयस्तु प्राचीनानुरागेण प्रस्तरभूतस्यैवोचितः, न विपश्चितामिति । ( जलस्येत्यत्र डलयोः साम्ये पारुष्यपरिहार्थं लप्रयोगः । ) । । ४ । । अथ पुरातनप्रामाण्यनिःसारतामाविष्कुर्वन्नाह जनोऽयमन्यस्य मृतः पुरातनः, पुरातनैरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनवस्थितेषु कः, है, कि जो प्राचीनपुरुषों के प्रेम से जड़ हो गया हो हो गया हो । पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ? ।।५।। - - - - १३ परस्पर विरोध से स्नेहहीन ऐसी अनेक प्रकार की स्थितियाँ है, तो शीघ्र निर्णय कैसे ( हो सकता है ) ? विशेष की सिद्धि करने के विषय में यही या यह नहीं ऐसा ( निर्णय करना तो ) पुरातनप्रेम से जड़ बनी हुई व्यक्ति को ही उचित है। पथ्थरसा बुद्धिहीन बुद्धिमान विबुद्ध जन के लिये यह मुमकीन नहीं है। जितने ही वचन के मार्ग है उतने ही नयवाद है, एवं जितने ही नयवाद है, उतने ही परसमय है, ऐसा सन्मति तर्क प्रकरण में स्वयं दिवाकरजी ने ही कहा है। यहा 'बहुप्रकारवालें' ऐसा कहने से उन नाना प्रकार के परसमयों का निर्देश किया है। 'जलस्य' यहाँ ड-ल में साम्य होने से कठोरता का परिहार करने के लिये 'ल' का प्रयोग किया है । । ४ ।। अब यह बतलाते है कि प्राचीन पुरुषों को ही प्रमाण मानना यह कितनी सारहीन बात है मरा हुआ आदमी अन्य का पुरातन है। इस लिए वह भी पुरातन के समान ही है। इस तरह पुरातन अनवस्थित होने से पुरातन के वचनों को बिना परीक्षा किए कौन स्वीकारे ? ||५||
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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