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________________ १२ तदाह इति।।३।। - - तत्त्वोपनिषद् - 8 वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः असमीक्षेति क्वचित्पक्षपात इत्यावेदयति बहुप्रकाराः स्थितयः परस्परं, विरोधरूक्षाः कथमाशु निश्चयः ? विशेषसिद्धावियमेव नेति वा, — - पुरातनप्रेमजलस्य युज्यते ||४|| बहुप्रकारा इति वचनपथमितनयवादमितपरसमयसमसङ्ख्याः। विरोधेन रुक्षा इव रूक्षाः, आनुरूप्यस्नेहलेशविरहेण सम्बद्धत्वा - क्यूँ कि अविवेक परम आपत्तिओं का घर है। जो विमर्शपूर्वक कार्य करता है, उसके गुणों पर अनुरक्त हो कर सम्पत्तिया स्वयं उसे चुन लेती है ||३|| सोचे बिना ही स्वीकार कर लेना यह कही पक्षपात का सूचक है - यह बतलाते हुए कहते है नाना प्रकार के मतों परस्पर विरुद्ध है और रूक्ष है। इनमें सहसा निश्चय कैसे ? 'विशेषसिद्धि में यह ही समर्थ है और यह नही' ऐसा प्राचीनपुरुषों के प्रेम से जो जड हो, वही कह सकता है ||४|| नाना प्रकार के मतों की अनेक प्रकार की व्यवस्थाए है, जो परस्पर विरुद्ध है। इसी लिये आपस में कोइ तालमेल नहीं, अत्यन्त असम्बद्धता है, रुखी चीज़ जैसे जूड नही सकती, उसी तरह ये भी रूखे - रूक्ष है। अनुरूप स्नेह ( अविरुद्धता) का अंश भी न होने से उनमें परस्पर संबंध का अभाव है। इसमें यही सच और बाकी सब झूठ ऐसा अविचारित सहसा निश्चय कैसे सम्भवित है ? इसी मत में विशिष्टता की सिद्धि होती है यह मत विशेषसिद्धि में समर्थ है। ऐसा परीक्षा किये बिना कह देना, यह तो उसीके लिये उचित १. सिद्धानि यमेव - इति मुद्रिते कप्रतौ च । ख - सिद्धानियमे च ।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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