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________________ १४ - - तत्त्वोपनिषद्अनित्या प्राचीनेतरव्यवस्थेति नैव प्रामाण्यास्पदम्, अन्यथा रथ्यापुरुषोऽपि तदास्पदं स्यादिति परीक्ष्यकारितयैव भाव्यं कल्याणकामिनेति तात्पर्यम्।।५।। अथापरीक्षकविडम्बनामाह - विनिश्चयं नैति यथा यथाऽलस स्तथा तथा 'निश्चितवत् प्रसीदति। अवन्ध्याक्या गुरवोऽहमल्पधी रिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति।।६।। एक आदमी मर जाता है तब वो दुसरे जीवंत आदमी के लिये पुरातन बन जाता है। जैसे कि अन्य प्राचीन पुरुष है, उनके समान ही वो भी बन जाता है। इस तरह तो कौन प्राचीन और कौन अर्वाचीन ? एक समय का अर्वाचीन भी आज प्राचीन है और आज के अर्वाचीन भी भविष्य में निश्चितरूप से प्राचीन बन जायेंगे हम देख सकते है कि प्राचीनता इस प्रकार से नित्य नहीं है। इसी हेतु प्राचीन पुरुषों भी अनवस्थित है। तब ऐसा कौन हो सकता है, कि जो प्राचीन वचनों की परीक्षा किये बिना ही उनका स्वीकार कर ले ? इस तरह तो रास्ते में भटकता भिखारी भी एक दिन प्राचीन होने के नाते प्रमाण बन जायेगा। इस लिये जो कल्याण की कामना करता हो, उसे प्राचीन पुरुषों पर का पक्षपात व अनुराग दूर करके मध्यस्थ दृष्टि से सभी दर्शनों का - सभी दृष्टि-विचारों का समीक्षात्मक एवं परीक्षात्मक अध्ययन करना चाहिए।।५।। जो यह नही करता उसकी विषम स्थिति का बयान करते हुए कहते जैसे जैसे आलसी निश्चय नही पाता, वैसे वैसे वह इस तरह खुश होता है कि जैसे उसे निश्चय हो चूँका हो। गुरु का वचन अमोघ है, १. क- निश्चिततत्प्रसीदेति। २. ख- ०वाक्ये गु० ।
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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