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________________ - तत्त्वोपनिषद् -११ ___ च्छुचः परं नापरमन्यदा क्रिया।।३।। लोकेऽपि तावन्निम्नजलस्थलान्तरं तादृशं वान्यदचिन्त्यं दारुणं चेदं सर्वमिति प्रायः प्राकृतैरपि न विभाव्यते। अपि तु सर्वोऽपि समीक्ष्य परीक्ष्य च तत्र प्रवर्तते। नात्र पुरातनोदितोपयोगः। तथाऽन्यत्रापि किं नेति हृदयम्। यस्य त्वचिन्त्यमेतदित्येव चिन्तनम्, तस्याभिनिविष्टस्यान्यदाऽसमीक्षाफलदफलपाककाले शोक एवोपतिष्ठते। नापरं किमपि। नापराऽस्य काऽपि क्रिया। अगाधजलेऽसमीक्षादत्तझम्पग्रहिलवत्। परीक्ष्यकारितैव सचेतनविशेषः, विचक्षणतालिङ्गम्, सम्पद्वीजं च। अतिरिक्त कुछ करना नही होगा।।३।। कोइ अज्ञात नदी-तालाब जैसे विषम स्थान में जाने के अवसर पर कोइ ऐसा नही सोचता कि- 'इस स्थान की कोइ परीक्षा करनी उचित नही है - इस पर कोई विचार नही करना चाहिए। यह सब अचिन्त्य है, इस पर विमर्श करने से भयंकर परिणाम मिलेगा। बुझर्गों ने इसके बारे में क्या कहा है ? यही याद करके मुझे तो आँख बंध करके कूद पडना है।' गाँव का गँवार लड़का भी ऐसे अवसर पर सोच समझ कर, अच्छी तरह परीक्षा करने के बाद ही कदम-कदम बढ़ाता है। वो जानता है कि यहाँ पुरातनों के सुभाषितों का कोइ उपयोग नहीं। यही रीति अन्यत्र भी होनी नहीं चाहिए? ___'यह सब अचिन्त्य - अविचारणीय है' इसके अलावा जिसके पास कोइ विचार नहीं, वो भविष्य में शोक के अलावा कुछ भी नहीं करता है। जैसे कि गंभीर जल में बिना सोचे कूद पडनेवाला कोइ पागल। परीक्षापूर्वक ही प्रवृत्ति करना वही जीवों में उच्चचैतन्ययुक्त मनुष्यों की विशेषता है, वही तो विद्वत्ता का परिचय है और वही तो संपत्ति का कारण है। कहा है ना ? बिना बिचारे सहसा कुछ भी न करना चाहिए
SR No.023438
Book TitleTattvopnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanbodhisuri
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages88
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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