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________________ जैनधर्मसिंधु. प्रथम स्नात्रपीठके ऊपर, दिपालग्रह अन्य दैवतपूजन वर्जके, पूर्वोक्त प्रकारकरके जिनप्रतिमा को पूजके, मंगलदीप वर्जित श्रारात्रिक करके, पूर्वोपचारयुक्त श्रावक, गुरुसमद संघके मिले हुए, चार प्रकारके गीतवाद्यादि उत्सवके हुए पुष्पांजा लि हाथमें लेके । __“॥ नमो अरहंताणं नमोई सिकाचार्योपाध्याय सर्वसाधुन्यः ॥” यह पढके दो बंद पढे.। कल्याणं कुलवृद्धिकारि कुशलं श्लाघाईमत्यद्भूतं । सर्वाघप्रतिघातनं गुणगणालंकारवित्राजितम् ॥ कातिश्रीपरिरंजणं प्रतिनिधिप्रख्यं जयत्यहतां । ध्यानं दानवमानवैर्विरचितं सर्वार्थसंसिझये ॥१॥ नुवननविकपापध्वांतदीपायमानं । परमतपरिघातप्रत्यनीकायमानम् धृतिकुवलयनेत्रावश्यमंत्रायमानं । जयति जिनपतीनां धाममत्युत्तमानाम् ॥२॥ यह पढके पुष्पांजलिदेपण करे. ॥ इतिपुष्पां जलिदेपः ॥ कर्पूरसिब्हाधिककाकतुंम,कस्तुरिकाचंदनवंदनीयः॥ धूपो जिनाधीश्वरपूजनेऽत्र, सर्वाणि पापानि दहत्व जस्त्रम् ॥१॥ यह पढके सर्वपुष्पांजलियोंके बीचमें धूपोत्
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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