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________________ अष्टमपरिछेद. १ देप करे. ॥ और शक्रस्तव पढे. ॥ पीछे जलपूर्ण कलश लेके, दो श्लोक पढे. ॥ केवली जगवानेकः, स्वाद्वादी मंगनैर्विना ॥ विनापि परिवारेण, वंदितः प्रभुतोर्जितः ॥ १ ॥ तस्ये शितुः प्रतिनिधिः सहज श्रियाढ्यः । पुष्पैर्विनापि हि विना वसनप्रतानैः ॥ गंधैर्विना मणिमयाभरणैर्विनापि । लोकोत्तरं किमपि दृष्टिसुखं ददाति ॥ २ ॥ यह पढके प्रतिमाको कलशाभिषेक करे. ॥ इति प्रतिमायाः कलशा निषेकः ॥ पुष्प छालंकारादि उत्ता रके, कलशा निषेक करके पीछे फिर पुष्पांजलि लेके, दो काव्य पढे. । विश्वानंदकरी जवबुधितरी सर्वापदां कर्तरी । मोक्षाध्वैकविलंघनाय विमला विद्या परा खेचरी ॥ दृष्टया जावितकल्मषापनयने बद्धाप्रतिज्ञा दृढा । रम्यात्प्रतिमा तनोतु जविनां सर्वं मनोवांछितम् ॥ १ ॥ परमतररमासमागमोत्थप्रसृमर हर्ष विना सिसन्निकर्षा जयति जगति जिनेशस्य दीप्तिः प्रतिमा का मितदा यिनी जनानाम् ॥ २॥ " यह पढके फिर पुष्पांजलिप करे. पीछे पूर्वोक्त कर्पूर सिल्हा ' वृत्तकरके धूपोत्क्षेप करे, और श स्तव पढे । पीछे फिर पुष्पांजलि हाथमें लेके, दो काव्य पढे. ॥ यथा ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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