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________________ ७३० जैनधर्मसिंधु "अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपणत्तं तत्तं, इत्र समत्तं मए गहिथं ॥१॥" तदनंतर अरिहंतको वर्जके अन्यदेवको नम स्कार करनेका, जैनयति महाव्रतधारी शुरु प्ररू पकको वर्जके अन्य लिंग विप्रादिकोंको नावसे अर्थात् मोक्षलाज जानके वंदना करनेका, और जिनोक्त सप्त तत्वको वर्जके तत्वांतरकी नका करनेका, नियम करना. अन्य देव और अन्य लिंगि विप्रादिकोंको नम स्कार और दान,लोकिकव्यवहारकेवास्ते करना.और अन्यमतके शास्त्रका श्रवण पठन नी, ऐसेंही जान ना. । पीछे गुरु सम्यक्त्वकी देशना करे. ॥ सोब ताते हे. ॥ मानुष्यमार्यदेशश्च जातिः सर्वातपाटवम् ॥ आयुश्च प्राप्यते तत्र कथंचित्कर्मलाघवात् ॥१॥ प्राप्तेषु पुण्यतः श्रझा, कथकः श्रवणेष्वपि ॥ तत्त्वनिश्चयरूपं तद्बोधिरत्नं सुर्खनम् ॥२॥ ॥ गाथा ॥ कुसुमयसुईण महणं सम्मत्तं जस्स सुम्पिं हियए॥ तस्स जगुजोयकरं नाणं चरणं च नवमहणं ॥१॥ अर्थः-मनुष्यजन्म १, थार्यदेश २, उत्तमजाति ३, सर्वति संपूर्ण ४, आयुः ५, ये कथंचित् कर्म की लाघवतासें प्राप्त होते है । पुण्योदयसें पूर्वोक्त
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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