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________________ ७३१ अष्टमपरिवेद. प्राप्ति हुये जी श्रद्धा १, शुद्ध प्ररूपकका योग २, और सुणनेसें तथा निश्चयरूप बोधिरत्न सम्यक्त्व ३, ये अतिही उझन हैं. ॥ कुत्सितसमयएकांतवादि योंके शास्त्र और तिनकी श्रुतियोंको मथन करनेवाला सम्यक्त्व, जिसके हृदयमें अलीतरें स्थित है, तिस पुरुषको जगत्के उद्योत करनेवाले, और जव-संसा रको मथनेवाले, ज्ञान और चारित्र प्राप्त होते हैं.॥ ॥श्लोकाः॥ या देवे देवताबुधिरौ च गुरुतामतिः ॥ धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥१॥ अदेवे देवबुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या ॥ अधम्म धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्वं तहिपर्ययात् ॥२॥ सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः ॥ यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥३॥ ध्यातव्योयमुपास्योयमयं शरण मिष्यताम् ॥ अस्यैव प्रतिपत्तव्यं शासनं चेतनाऽस्ति चेत् ॥४॥ ये स्त्रीशस्वादसूत्रादिरागाद्यंककलंकिताः॥ निग्रहानुग्रहपरास्ते देवा स्युन मुक्तये ॥५॥ नाट्याट्टहाससंगीताद्युप्लव विसंस्थुलाः॥ लंजयेयुः पदं शांतं प्रपन्नान् प्राणिनः कथं ॥६॥ महाव्रतधरा धीरा नेयमात्रोपजीविनः ॥ सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥॥ सर्वाजिलाषिणः सर्वनोजिनः सपरिग्रहाः॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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