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________________ १०४ जैनधर्मसिंधु. स्वजनबंधुप्रत्यदं संबंधः सुकृतः सदनुष्ठितः सुप्राप्तः सुसंगतः तत्प्रदक्षिणी क्रियतां तेजोरा शिर्विजावसुः॥" ऐसें कहके तैसेंही ग्रथित अंचल वरवधू, अग्निकी प्रदक्षिणा करें. तैसें प्रदक्षिणाकरके तैसेंही पूर्वरी तिसें बैठे. लाजांजलीकी तीनों प्रदक्षिणामें आगे वधू और पीने वर हो. दक्षिण पासे वधूका श्रासन, औरवामे पासे वरका श्रासन.॥इति प्रथमलाजाकर्म। पीछे वरवधूके श्रासन ऊपर बैठे हुए, वेद मंत्र पढे. __“॥ अहँ कर्मास्ति मोहनीयमस्ति दीर्घस्थि त्यस्ति निविममस्ति उद्यमस्ति अष्टाविंशतिप्रकृ त्यस्ति क्रोधोस्ति मानोस्ति मायास्ति लोलोस्ति संज्व लनोस्ति प्रत्याख्यानावरणोस्ति अप्रत्याख्यानोस्ति अनंतानुबंध्यस्ति चतुश्चतुर्विधोस्ति हास्यमस्ति रति रस्ति अरतिरस्ति जयमस्ति जुगुप्सरस्ति शोको स्ति पुंवेदोस्ति स्त्रीवेदोस्ति नपुंसकवेदोस्ति मिथ्यात्व मस्ति मिश्रमस्ति सम्यक्त्वमस्ति सप्तति कोटाकोटि सागरस्थित्यस्ति अहँ उँ ॥” यह वेदमंत्र पढके ऐसा कहे. “॥ तदस्तु वां निकाचितनिविमबजमोहनीयक र्मोदयकृतः स्नेहःसुकृतोस्तु सुनिष्टितोस्तु सुसंबंधोस्तु आजवमदयोस्तु तत् प्रदक्षिणी क्रियतां विजावसुः॥" फेर जी तैसेंही अग्निकी प्रदक्षिणा करे ॥ इति हितीयलाजाकर्म ॥
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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