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________________ अष्ठमपरिजेद. उ०५. चारोंही लाजामें प्रदक्षिणाके प्रारंजमें वधू, अग्निमें लाजामुष्टि प्रदेप करे. पीछे तिन दोनोंके तैसेंही बैठे हुए, गुरु, ऐसा वेदमंत्र पढे. __“॥ अहँ कर्मास्ति, वेदनीयमस्ति,सातमस्ति, असातमस्ति, सुवेद्यं सातं, पुर्वेद्यमसातं, सुवर्गणाश्र वणं सातं, पुर्वर्गणाश्रवणमसातं, शुनपुनलदर्शनं सातं, छःपुमलदर्शनमसातं, शुजषट्रसास्वादनं सातं, श्रशुलषट्रसास्वादनमसातं, शुनगंधाघ्राणं सातं, अशुनगंधाघ्राणमसातं, शुनपुद्गलस्पर्शः सातं, अशु जपुनलस्पर्शोऽसातं, सर्वं सुखकृत् सातं, फुःखकृद सातं, अँह में इस वेदमंत्रको पढके ऐसें कहे. ___“॥ तदस्तु वां सातवेदनीयं माजूदसातवेदनीयं तत् प्रदक्षिणी क्रियतां विनावसुः ॥” । इति पुनः अग्निको प्रदक्षिणा करके वधूवर दोनों तैसेंही बैठ जावे. ॥ इति तृतीयलाजाकर्म ॥ पीने गुरु ऐसा वेदमंत्र पढे. ___“॥ ॐ अँह सहजोस्ति, स्वजावो स्ति,संबंधोस्ति, प्रतिबद्धोस्ति,मोहनीयमस्ति, वेदनीयमस्ति, नामास्ति, गोत्रमस्ति, आयुरस्ति, हेतुरस्ति, आश्रवबझमस्ति,क्रि याबझमस्ति,कायबझमस्ति,सांसारिकसंबंधःअँह ॥ - ऐसा वेदमंत्र पढके, कन्याके पिताके, चाचेके, जाश्के वा कुलज्येष्टके, हाथको तिलयवकुशदूर्वासं युक्त जलसें पूरके, ऐसे कहे.
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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